गुरुवार, 15 जनवरी 2009


छोटी-छोटी हसरतें थीं,

छोटी-छोटी चाहतें थीं॥

क्यूँ न हम सुलझा सके

वो तो,

छोटी-छोटी उलझनें थीं॥

महफूज़ अली॥

दांते

एक और बड़ा अच्छा वाक़या याद आया है। बात उन दिनों की है जब मैं दसवीं क्लास में पढता था..... हमारे एक इतिहास के टीचर हुआ करते थे.... उनका नाम तो याद नही आ रहा है..... पर लंगूर नाम से पूरा स्कूल उनको जानता था.... यह नाम भी उनका इसलिए पड़ा था.... क्यूंकि एक तो वो ख़ुद भी बड़े लाल लाल थे....और दूसरा एक बार उनकी क्लास में लंगूर बन्दर घुस आया था.... तो बेचारे डर के मारे टेबल के निचे घुस गए थे...तबसे उनका नाम लंगूर पड़ गया था...... खैर.... मैं अपने वाकये पर आता हूँ।

एक बार वो हमें क्लास में इतिहास पढ़ा रहे थे..... तो किसी चैप्टर में इटली के महान दार्शनिक दांते का ज़िक्र आया..... तो वो दांते के बारे में पढ़ा रहे थे...... तभी क्या हुआ की मेरे बगल में मेरा दोस्त अरुण साईंबाबा मुहँ बंद करके हंसने लगा.... तो हम कुछ लड़कों का गैंग था... सब उसकी उसकी ओर चोर नज़रों से देखने लगे.... हमने पुछा की 'अबे! हंस क्यूँ रहा है?'

तो उसने एक और लड़के की ओर इशारा कर दिया... हमने उस लड़के की ओर देखा तो हम लोग सारी कहानी समझ गए.... की अरुण क्यूँ हंस रहा था?

दरअसल हमारे साथ एक लड़का पढता था जिसके दांत बिल्कुल सीधे बाहर की ओर निकले हुए थे.... तो अब हमारी क्लास में एक और नामकरण हो गया....उस बेचारे लड़के का नाम दांते पड़ गया......

और सही बता रहा हूँ....अज भी उसको हम लोग दांते ही बुलाते हैं..... खैर ! आजकल वो भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर में ग्रेड बी का साइंटिस्ट है॥
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