शुक्रवार, 5 मार्च 2010

इस क़दर टूटा हूँ कि रोना चाहता हूँ....: महफूज़

कभी-कभी मन बहुत उदास होता है. कारण ख़ुद को भी नहीं पता होता. हम रोना तो चाहते हैं, लेकिन आंसू नहीं निकलते, मंज़िल सामने तो होती है लेकिन रास्तों का पता नहीं होता. विचारों का द्वंद्व  दिल-ओ-दिमाग़ में चलता रहता है लेकिन विचारों में ठहराव नहीं होता. यूँ ही अपलक लेटे-लेटे छत पर टंगे पंखे को देखते हैं लेकिन अशांत मन द्वंद्व में रहता है. इसी द्वंद्व को दर्शाती ....प्रस्तुत है एक कविता.....  




इस क़दर टूटा हूँ कि
रोना चाहता हूँ.
आत्मा की पुक़ार खींच रही है
ख़ुद से बातें करना चाहता हूँ.
घना  अँधेरा,
जिसकी दुनिया नहीं
खिड़की किनारे बैठ कर,
सूनी आँखों से,
सुनता रेलगाड़ी की आवाज़
अनमना सा,
मंज़िल को पाना चाहता हूँ.
गाता उदासी के गीत
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
शिव खेडा "आप जीत सकते हैं"
फ़िर सोचता,
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक 
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत 
यात्रा पर....

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