शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

अब तो नदी के सूखने की संभावना ही नहीं है: महफूज़ (Mahfooz)

मुझे पता नहीं क्यूँ कविता करने से बहुत डर लगता है..... एक तो यह कि कोई पढ़ता नहीं है और जो पढ़ भी लेता है तो वो अपना दिमाग लगा कर उसके मतलब में अपने हिसाब से एनालिसिस कर उस कविता को तहस नहस कर देता है और फ़िर ऊपर से मेरे जैसे को हिंदी डिक्शनरी देखनी पड़ती है तो वो अलग हेडेक... अब इस कविता में ही मुझे नहीं पता था कि छोटे छोटे पत्थरों को क्या बोलते हैं बड़ी मुश्किल से पता चला कि कंकड़ भी बोलते हैं ... ऐसा नहीं है कि मुझे कंकड़ नहीं पता था ...पता तो था लेकिन दिमाग़ में नहीं आ रहा था. अंग्रेज़ी सोचने और खाने का यही हाल होता है. 

अभी समीर लाल जी ने मुझे दोबारा ब्लॉग्गिंग करते देख कर कहा "वाह! ड्रैगन बैक इन एक्शन" .... मुझे यह टाइटल बहुत पसंद आया.. कितने डाइनामिक लगते हैं ऐसे टाइटल्ज़ .... कितनी एनेर्जी भर देते हैं... सो मैनलीहुड...  

           कविता से याद आया कि क्या हुआ ना फेसबुक पर एक महिला हैं उन्होंने अपनी वाल (Wall) पर किसी दूसरे कवि की कविता छाप दी और ढाई सौ कमेन्ट पा गईं... उस कवि ने उनकी यह गलती (चोरी) अपने वाल (Wall) पर सबको बता दी, अब उन महिला का चेहरा देखने लायक था. अब वो अपना फ्रस्ट्रेशन कैसे निकालतीं तो उन्होंने क्या किया कि पता नहीं कहाँ कहाँ से कैसी कैसी फोटो खोज कर अपने वाल पर डालनी शुरू की कि उनके पड़दादा फलाने साहित्यकार थे, तो दादा ने रामायण लिखी थी उन्होंने ही तमाम देवी देवताओं को वर्ल्ड फेमस किया था अगर उनके दादा नहीं होते तो आज इतने देवी देवता नहीं होते. मतलब फ्रस्ट्रेशन में उस महिला की यह हालत हो गई कि वो साइकी टाइप बिहेवियर करने लगीं. 

अरे मैडम .. अगर आपने चुरा भी लिया था तो उन ढाई सौ कमेंट्स के बीच में कहीं यह भी लिख देतीं कि यह कविता आपकी नहीं है. अब भई चोरी तो चोरी है. चोरी हमने भी की है लेकिन बता कर. 

अच्छा! मेरे एक चीज़ और समझ में नहीं आती कि आख़िर ऐसी क्या बात है कि फेसबुक के आते ही इतनी कवयित्रियाँ कहाँ से पैदा हो गईं है?  पुरुष तो फ़िर भी इतने कवि नहीं हैं लेकिन महिलाओं में देखता हूँ कि बाढ़ आ गई है और देखता हूँ कि लिंगुत्थान से वंचित ढेर सारे पुरुष जिनकी पत्नियां रात में  रोते हुए सो जातीं हैं वो वहां पर हर महिला के वाल पर रात में ख़ुशी-ख़ुशी और खुदखुशी में तारीफ़ करते नज़र आते हैं..  कमाल का फ्यूज़न है... और तारीफ़ भी ऐसी कि 'मैडम! हिंदुस्तान की शेक्सपियर आप ही हो".  फेसबुक देखकर ऐसा लगता है कि यह वो रेड लाईट एरिया है जहाँ हस्तमैथुन और दिमागी (साहित्यिक) मैथुन (Onanism) की अवैलिबिलीटी ज़्यादा है और दोनों में इमैजिनेशन का बहुत बड़ा रोल है.  आज सब लोग सोच रहे होंगे कि  मैं पगला गया हूँ .....क्या करूँ भई ?...आज लिटरली भड़ास निकाली है... भड़ास... हाईट हो गई थी. आईये भाई ... अब बियौंड थिंग्स .... इन्क्रेडिबली... स्ट्फ्स रिटन अबोव .... प्लीज़ हैव अ ग्लैन्स ओवर माय कविता.   
{आय ऍम वैरी सेल्फ ऑब्सेस्ड}

अब नदी के सूखने की संभावना नहीं है. 

कंकड़  का बनना 
रोक नहीं सकते
हम यह कर सकते हैं 
कि इन्हें पहाड़ ना बनने दें....

                    ज़रा सी नासमझी से 
                    पहाड़ नदी पर तैरने लगते हैं 
                    और
                    दोनों का चैन हराम हो जाता है.

नदी पहाड़ से डरती है 
कि वो उसके नीचे ना रह जाए....
पहाड़ को इस बात से तकलीफ 
कि उसका अटल अस्तित्व 
पानी पर तैर रहा है.....

                    इस सबके बावजूद 
                    तुम्हारे और मेरे बीच
                    में एक नदी बहती है 
                   जिसके सूखने की संभावना 
                          नहीं है...

क्यूंकि तुम ही 
वो नदी हो 
जो इन बनते हुए कंकड़ को 
अपने में समा लोगी.   

(c) महफूज़ अली
[हाइवे पर थोडा रुक गया था चाय पीने, सर्दी में थोड़ी धूप हो गयी थी]

कई लोग मुझे कहते हैं/ [कहतीं भी हैं] कि साला! तू बुड्ढा हो गया है.... इत्ते पुराने पुराने गाने खोज कर लाता है.... पुराने गानों की बात ही अलग है... लेस म्युज़िक मोर मीनिंग... मोर मीनिंग .... मोर सुकून...और सबसे बड़ी बात दिल और दिमाग को ठंडक का एहसास कराते... और उससे भी बड़ी बात ... बेस्ट वे ऑफ़ कम्युनिकेटिंग आवर वेज़ ऑफ़ फीलिंग्स... तो भई लीजिये पेश है आज का गाना... 

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