रविवार, 2 जून 2019

द पाईड पाइपर ऑफ़ हिन्दुकुश: अ स्टोरी रिडिफाइनड....

सदियों पुरानी बात है. सुदूर हिन्दुकुश पर्वतों के उस पार टीरिच नाम का एक देश हुआ करता था. वहाँ का राजा घमण्डी किस्म का था. उसके आस-पास हमेशा चाटुकारों का जमघट लगा रहता था. राजा अपनी बातों को सच साबित करने के लिए ज़्यादातर झूठ और रीढविहीन दलीलों का इस्तेमाल किया करता था. राजा होने की वजह से सब उसकी हाँ में हाँ मिलाते थे. दरबारियों की भी हालत ऐसी थी कि राजा के सामने गलत को गलत बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते थे. जब-तब बेसिर-पैर के करों के बोझ से जनता को दबाया जाता था. कुछ दरबारियों को अत्याचार करने का राजा का मौन समर्थन भी था जिसकी आड़ में वो जनता पर ज़ुल्म किया करते थे. 






इन्हीं सब हालातों के बीच एक बार देश में भीषण महामारी फ़ैल गई. किसी के भी समझ नहीं आ रहा था कि यह महामारी कहाँ से आई है और कैसे फ़ैल रही है? लोग मर रहे थे और बचने के लिए यहाँ वहां भाग रहे थे. किसी के पास भी महामारी को रोकने के लिए उपाय नहीं. जनता त्राहि माम - त्राहि माम कर रही थी मगर काफी ऊँचाई पर महल के सुरक्षित और मज़बूत किले में रहने की वजह से राजा को महामारी से कोई डर नहीं लग रहा था न ही उसे जनता के मरने की कोई फ़िक्र थी. वो अपने ही जहान में सुकून से था. 

राजा को दरबारियों ने बताया कि अगर इस महामारी से निपटने का जल्दी ही कोई उपाय नहीं किया गया तो जनता विद्रोह कर देगी और इतनी बड़ी तादाद में विद्रोह को रोकना मुश्किल हो जायेगा. राजा को भी महसूस जुआ कि जल्द ही अगर कुछ नहीं किया गया तो विद्रोह के कारण राज करना मुश्किल हो जायेगा. राजा ने दरबारियों की आपातकालीन बैठक तुरंत बुलाई और उस बैठक में महामारी का कारण पता लगाने का निर्देश दिया. सम्बंधित दरबारियों ने अपने अपने संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल करते हुए महामारी का पता लगाने की भरपूर कोशिश की जो कि रंग लाई. महामारी का कारण राज्य में चूहों की बढती तादाद थी जिसकी वजह से महामारी फ़ैल रही रही थी. राज वैद्य ने इस महामारी का नाम प्लेग बताया जिसकी वजह से लोग मर रहे थे और गाँव के गाँव महामारी की चपेट में आ कर साफ़ हो रहे थे. राजा और समस्त दरबारी ऊँचाई पर सुरक्षित जगह पर रहने की वजह से इस महामारी से बचे हुए थे मगर जनता मर रही थी. 

हालात को देखते हुए महामारी से निपटने का जब कोई उपाय नहीं सूझा तो राजा ने मुनादी करने का आदेश दिया जिसमें कहा गया कि "जो कोई भी देश और प्रजा को चूहों द्वारा उत्पन्न की गई इस प्लेग नामक महामारी से मुक्त करेगा उसे राजा अपना आधा राज-पाट ईनाम स्वरुप दे देंगे". प्लेग से निपटने के लिए इतनी बड़ी तादाद में चूहों को मारना तकरीबन नामुमकिन था. और प्रजा और आस-पास के इलाकों से भी अब तक कोई इस समस्या को दूर करने सामने नहीं आया. एक दिन एक गडरिया राजा के दरबार में आया. उसने रंग-बिरंगी अजीब सी धोती और कुरता पहना हुआ था और दाँयें हाथों की उँगलियों में एक बांसुरी फँसी हुई थी. उस गडरिये ने राजा से कहा कि वो उसके राज्य से चूहों का ही सफाया कर देगा तो जब चूहे ही नहीं रहेंगे तो यह प्लेग नामक महामारी भी ख़त्म हो जाएगी. राजा को उस गडरिये में अपना राज-पाट बचाने की उम्मीद नज़र आई. गडरिये ने भी राजा से आधे राज-पाट के वादे को पक्का किया. गडरिये ने राजा को बताया कि वो अपनी बाँसुरी बजा कर सारे चूहों को सम्मोहित कर देगा और उन्हें अपने पीछे ले जा कर समुन्द्र में डुबो देगा और इस तरह से सारे चूहे मर जायेंगे और राज्य से महामारी ख़त्म हो जाएगी. 

राजा को बाँसुरी से चूहों के सम्मोहित होने की बात पर यकीन नहीं हुआ मगर उसके पास गडरिये की बात पर यकीन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था. राजा को पूरा यकीन था कि ऐसा कुछ नहीं होगा और उसे अपना आधा राज-पाट ईनाम स्वरुप नहीं देना पड़ेगा. इसी यकीन में राजा बेफिक्र सो गया. अगली सुबह राजा ने उठ कर अपने महल की ऊंचाई से देखा कि अनगिनत चूहे किसी अनजान धुन के पीछे-पीछे अनुशासन में जा रहे थे, राजा को सिर्फ धुन सुनाई दे रही थी और वो गडरिया कहीं नज़र नहीं आ रहा था. राजा समझ गया कि चूहों की इतनी लम्बी कतार में गडरिया कहीं बहुत आगे है जो अपने धुन की तान पर चूहों को राज्य से बाहर कर रहा है. 



शाम तक सारे चूहे राज्य से ख़त्म हो चुके थे. गडरिये ने अपने वादे अनुसार सबको समुन्द्र में डुबो दिया था. अगली सुबह अपनी उँगलियों में वही बाँसुरी फँसाये जिसे उसने बजा कर चूहों का ख़ात्मा किया था गडरिया राजा के दरबार में पहुँचा और राजा से अपना वादा पूरा करने को कहा. राजा अपने वादे से मुकर गया. राजा को मुकरते देख दरबारियों को कोई हैरानी नहीं हुई और न ही कोई हैरानी गडरिये को हुई. गडरिया चुपचाप राजा के दरबार से चला गया. राजा और उसके दरबारी इसे एक मामूली घटना समझ कर भूल गए. अगली सुबह राजा सो कर उठा तो उसे अपने आस-पास कोई भी नज़र नहीं आया. उसने अपने कारिंदों और नौकरों को आवाज़ दी मगर कोई नहीं सुना. हैरान-परेशान राजा उठा और उठ कर अपने बारजा में आया जहाँ से उसे अपना पूरा शहर दिखता था. राजा ने एक नज़र शहर पर डाली उसे कहीं कोई भी इंसान नज़र नहीं आया. 



एक अजीब सी मुर्दनी पूरे शहर पर छाई हुई थी कि तभी राजा की नज़र महल के बगल से निकलने वाली सड़क पर पड़ी. हजारों की संख्या में भीड़ खामोशी के साथ किसी धुन के पीछे जा रही थी. राजा भी नेपथ्य में विलीन होती धुन को सुन रहा था. राजा के राज्य में अब एक भी इन्सान नहीं बचा था. अब राजा के समझ में आ गया कि वो राजा भी जनता की ही वजह से है. बिना जनता कैसा राजा? 

8 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-06-2019) को “प्रीत का व्याकरण” तथा “टूटते अनुबन्ध” का विमोचन" (चर्चा अंक- 3356) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जागना होगा, जिंदा बने रहने के लिए : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

Vikas Rajora ने कहा…

अति उत्तम पोस्ट।
कहानी की प्रासंगिकता किसी देश नहीं है।
उम्दा कहानी।
~ विकास राजौरा (manzarkashi.blogspot.com).

Unknown ने कहा…

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