मंगलवार, 20 नवंबर 2012

और आदमी आज़ाद हो जाता है : महफूज़



धीरे धीरे मैंने 
उसके भीतर 
सुख उंडेलने की शुरुआत की 
और 
उसकी पलकों के नीचे 
और ऊपर की चमड़ी 
झुर्रियाने लगी 
आँख बंद होती चली गयीं,
होंठ सीटियाँ बजाने लगे ... 
मैं रिसने को बेचैन 
अपनी गति बढाने जा रहा था।
गति बढती है तो 
कसाव निर्मम हो जाता है 
और आदमी 
भीतर की घुटन बाहर धकेल कर 
आज़ाद हो जाता है। 

रविवार, 11 नवंबर 2012

टाइम नहीं है ... लोकल लेवल पर छपे ऐसे लोग आत्महत्या भी नहीं कर लेते ... मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा और इन्हें अब जीने नहीं दूंगा: महफूज़

आजकल मेरे पास इतना टाइम नहीं होता कि ब्लॉग पोस्ट लिखूं या फिर ब्लॉग पर भूमिकाएं लिखूं ... एक चीज़ और है जो कि  समझ भी आ गयी कि  ब्लॉग और फेसबुकिंग तभी हो पाती है जब आप निरे निठल्ले, बेरोजगार और बिना किसी एम्बिशन के होते हैं और ऐम्लेसली ज़िन्दगी ढो  रहे होते हैं। अब तो मुझे यह नहीं समझ आता की कैसे लोग इतना टाइम निकाल कर कमेंट कर  लेते हैं हालांकि ऐसी ही फ़ालतू काम मैं भी कर चूका हूँ मगर वो मेरा टाइम ही ऐसा था जो खराब चल रहा था तो और कोई काम था ही नहीं फ़ालतू में यहाँ वहां कमेन्ट करने के अलावा। जैसे आज छुट्टी है और मैं फ़ालतू हूँ कोई काम धाम है नहीं सुबह तीन घंटे जिम में बिताये ..शाम धनतेरस के उसमें शौपिंग में बीतेगी ... और रात किसी रेस्ट्राओं में ... इसी बीच नालायक, ऐम्लेस, निठल्लों की तरह फ़ालतू टाइम था तो सोचा ज़रा हिंदी ब्लॉग्गिंग कर ली जाए। हिंदी ब्लॉग्गिंग का एक फायदा यह है कि  यहाँ आप जाहिलों, डिग्री धारक अनपढ़ों, ऐम्लेस लोग, और एक जगह बैठे रहने वालों से इंटरेक्शन कर के अपनी बात कह सकते हैं .. जाहिलों से इंटरेक्शन करना भी एक बहुत बड़ा आर्ट है जो मैं जानता हूँ। 
अभी हिन्द पॉकेट बुक्स की ओर  से मेरे पास तमाम पब्लिकेशन्स की किताबों की लिस्टिंग आई थी ... किसी भी नामी पब्लिकेशन में एक भी हिंदी का ब्लॉगर नहीं था ना ही कोई फेस्बुकिया था ... मेरे यह भी नहीं समझ में आता कि  ऐसी क्यूँ खुद के ही इज्ज़त में बम लगवाना ...यहाँ वहां से लोकल लेवल पर छप कर या  घर का पैसा यूँ ही नाली में बहा कर खुद को ही  छपवा कर सारे मोहल्लेवालों को ज़बरदस्ती अपनी किताब पढवाना ... 

अच्छा ! लोकली छपने के बाद ऐसे लोग आत्महत्या भी नहीं करते शर्म से ... कि  लोकल लेवल पर छपे हैं खुद का पेट काट कर किताब छपवाई है ... भई! ऐसे छपने से तो अच्छा  है आदमी तीन बार सकेसेफुल्ली सुईसाइड कर ले .... या फिर चम्मच में सूखा पानी लेकर डूब मरे ... ऐसा लगता है कि  हिंदुस्तान में हर नेटिया (आई मीन नेट यूज़र)  लेखक हो गया है और सबसे बड़ी बात यह  है कि  कोई इन्हें मानता भी नहीं फिर भी  खुद को मनाने में लगे हैं ... मंथन करना ज़रूरी है ... अब चलता हूँ ...   अपना क्या है ... स्कूल कॉलेज में हिंदी पढ़ी और लिखी नहीं ....यहीं इसी बात का मलाल हिंदी लिख पढ़ कर निकाल रहे हैं। 
(बिना मेरी फोटो के मेरी पोस्ट अच्छी नहीं लगती ना!)
आज यूँ ही एक कविता लिखी है ... कविताओं का भी कोई भरोसा नहीं होता ... पता नहीं क्या फीलिंग्स कब आ जाए और वो एक अलग मूर्त रूप ले ले .... देखा ही जाए अब कविता तो ... आज काजल कुमार जी ने एक स्टेटस डाला है फेसबुक पर कि "ब्लौगरों के कविताओं के इतने समूह-संकलन छप रहे हैं कि  लगता है कार्टून छोड़ कर कविताई कर ली जाए".... अब भाई बात भी  सही है ... सारा टैलेंट यहीं भरा हुआ है ... ही ही ही ...  .. निठल्ले, ऐम्लेस ... बेरोजगारों ...का समूह हो गया है अब ...  अरे मैं भी ना कविता लिखना भूल गया ... पता नहीं क्यूँ मुझे दूसरों की इज्ज़त में बम लगाने में बड़ा मज़ा आता है ... और यह सब इतने नालायक हैं कि  मेरा कुछ बिगाड़ भी नहीं पाते ... स्पाइंलेस फेलोज़ ... हुह ... 

मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा 

फ़िल्मी गानों में भी 
स्तर और लिहाज है 
हिंदी का बड़ा लेखक 
चुटकुले बाज़ है। 
यह देश, समाज और साहित्य 
के लिए 
दाद है, खुजली है, खाज है।
मैंने लेखक को गाली नहीं दी 
उसके पाप को दी है 
जनता को डसने वाले 
चुटकुले के सांप को दी  है ,
कलम की जूती ही इनकी नमाज़ है।
यह चुटकुलों में शान्ति के 
कबूतर उड़ाते हैं 
व्यवहार में इनसे कसाई भी डर जाते हैं 
इतिहास को  ना जानने  पर इन्हें बड़ा नाज़ है 
मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा 
चुटकुलों पर इन्हें अब जीने नहीं दूंगा। 

(c) महफूज़ अली 

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

कोई भूमिका नहीं, भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता: महफूज़


आज कोई यहाँ वहां की भूमिका लिखने का मन नहीं है। टॉपिक तो कई हैं दिमाग में मगर लिखने का मन नहीं कर रहा है ... और ना ही किसी को ताने मारने का मन है ... और ना ही किसी की बेईज्ज़ती करने का मन है। आज सिम्पली एक कविता है मगर बिना मेरी कोई फोटो के .... आजकल मैं फोटो नहीं खिंचवा रहा हूँ क्यूंकि ज्यादा हेवी जिम्मिंग की वजह से अच्छी आ नहीं रहीं .... तो ब्लॉग पर डालने का कोई मतलब नहीं है। कविता ही देखी  जाए अब ... बिना भूमिका के लिखना अच्छा  भी नहीं लगता है।






भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता
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यहाँ चाय, पान, सिगरेट और नमस्ते 
शिष्टाचार नहीं 
वरन उसकी एक अलग अर्थवत्ता है,
मगर 
मेरे भीतर जो टूट फूट रहा है 
उसका कारण 
शहर की बाहरी होड़ ही है ....
पीपल की फुनगियों पर 
अँधेरे की कोंपलें फूट रही हैं 
और पड़ोस की छत्त पर 
चिकत्तों वाला कुत्ता घूम रहा है....

(c) महफूज़ अली  

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

फिनिक्स... सायकोलौजिकल प्रॉब्लम..."मैं"... मेंटल डिसऑर्डर... फिलौसोफिकली पागल और बंद अँधेरे का दंगा: महफूज़


मुझे आजकल ख़ुद के बारे में ऐसे लगता है कि मैं एक फिनिक्स पक्षी हूँ जो अपनी राख से ज़िंदा हो जाता है. इसे एक झूठा घमंड भी कह सकते हैं मगर यह घमंड आजकल मुझ पर ज़्यादा ही हावी है, सुपिरियरीटी कॉम्प्लेक्स शायद किसी सायकोलौजिकल प्रॉब्लम की वजह से चादर की तरह ओढा हुआ हूँ. बहुत सारी चीज़ें जो कभी मेरे लिए मायने नहीं  रखतीं थीं आज पता नहीं क्यूँ मायने रख रहीं हैं.. पहले मेरे लिए पैसा उतना मायने नहीं रखता था मगर आज बहुत रखता है. पहले मेरे लिए छोटे छोटे रिश्ते भी मायने रखते थे मगर अब कोई भी रिश्ता बिलकुल भी मायने नहीं रखते.. पहले मैं अमीर ग़रीब नहीं सोचता था मगर आज सोचता हूँ... पहले मेरे लिए किसी लड़की/महिला का नेचर बहुत मायने रखता था मगर आज सुन्दरता ज़्यादा मायने रखती है... पहले उम्र कोई मायने नहीं रखती थी... मगर आज रखती है. ऐसी ही और भी बहुत सी चीज़ें हैं जो अब वक़्त और ज़रूरत के हिसाब से बदलती गईं. 

मुझे अपने स्कूल टाइम के दोस्त अब बिलकुल भी पसंद नहीं हैं, आज भी कई क्लासमेट मिलते हैं तो मैं पहचानने से इनकार कर देता हूँ... और दो-चार ऐसे भी हैं जिनसे हमेशा मिलने को जी चाहता है... ज़्यादातर मुझे इसीलिए पसंद नहीं आते क्यूंकि उनके लिए वक़्त ठहरा हुआ है. फिनिक्स पक्षी मैं ख़ुद को इसलिए कहता हूँ क्यूंकि इन कई सालों में में मैं कई बार मरा हूँ और कई बार मर कर दोबारा ज़िंदा हुआ हूँ.. आजकल मैं काफी एग्रेसिव हूँ.. था तो शुरू से.. ही.. मगर कुछ लोगों का ख़्याल कर के चुप हो जाता था मगर अब सिर्फ ख़ुद का ही ख़्याल रहता है. अब मेरे मैं से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. और मेरी सबसे बड़ी प्रॉब्लम मेरा यही मैं है. मैं "मैं" से उबरना चाहता हूँ... इस  मैं से बाहर निकलना चाहता हूँ.. लेकिन जब भी अपने आस-पास देखता हूँ तो मुझे मेरा मैं ही ज़्यादा अच्छा लगता है. मैं अपने मैं से ख़ुद से ज़्यादा प्यार करने लगा हूँ.. और जो एक शेल यानी कि आवरण से बाहर आना ही नहीं चाहता, हो सकता है कि यह कोई मेंटल प्रॉब्लम हो मगर एक ख़ूबसूरत प्रॉब्लम है. 

अच्छा! जब इन्सान ज़्यादा फिलौसोफिकल होता है तो उसके वीउज़ भी ऐसे होते हैं जो समझ नहीं आते और दूसरों को पूरी पर्सनैलिटी ही डिस्टर्ब नज़र आती है तो किसी को मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर नज़र आता है. जबकि फिलौसोफी पूरी पर्सनैलिटी पर ढंकी होती है. फिलौसोफिकल स्टेट में बहुत सारी चीज़ें ऐसी भी होतीं है जो पैरा सायकोलॉजीकल होती हैं, जिसका एक फायदा यह होता है कि ऐसे स्टेट में आदमी ज़्यादा लिटररी क्रिएटिव होता है. इस डायरी टाईप ब्लॉग्गिंग का भी एक अपना अलग मज़ा है... जो मन में आये लिखते जाओ किसी दूसरे की टेंशन नहीं. मुझे तो वैसे भी दूसरों की टेंशन नहीं होती. मैं तो दूसरों को टेंशन देता हूँ. मुझे कुछ लोगों की बेईज्ज़ती करने में बड़ा मज़ा आता है.. इतने नालायक लोग हैं जिनकी मैं हमेशा बेईज्ज़ती करता रहता हूँ कि मेरी बातों को रिटैलीयेट भी नहीं कर पाते.. शायद पलायनवादी होना इसे ही कहते हैं.. लड़ ना सको तो भाग ही लो. भई मैं अब ज़्यादा नहीं बोलूँगा.. नहीं तो फ़िर से कोई एक अलग फ़ालतू का टॉपिक शुरू हो जायेगा.. बिना मतलब में, मैं जाहिलों से लड़ना नहीं चाहता और न ही लड़ सकता हूँ. कविता पढ़ी जाए ...कविता.. इसकी बात ही अलग होती है. अगर सही से मतलब ख़ुद के विचार से लिखी जाए तो भावनाओं को उभार देती है. 
(भई! फोटो का ब्लॉग पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है , यह सुबह जिम से लौटते वक़्त गोमती किनारे।।।)

बंद अँधेरे का दंगा 

सम्प्रदाय की सांकल 
हर बार 
एक बंद अँधेरा बजाता है 
क़ुरान की जिल्द कहीं
उधडती है तो 
गीता का सीवन
टूट जाता है।।।। 

विधवाएं 
उर्दू और हिंदी की अलग नहीं हैं 
जीने का ठंडापन 
दोनों में 
विलग नहीं है  
ज़र्जर दीन-ऐ-इलाही 
का पत्थर 
हर बार सिसकता है 
और फूट जाता है।

© महफूज़ अली 
 

रविवार, 9 सितंबर 2012

श्री. जैंगो जी की बरसी... जानवरों से गया बीता कोई ना रहा ... और डौगी स्टायल ऑफ़ हिंदी ब्लॉग्गिंग अवार्ड : महफूज़


कहा जाता है कि घर में हमेशा कोई जानवर पालना चाहिए... इससे घर की सारी बलाएँ दूर रहतीं हैं... हमारे बड़े बुजुर्गों ने कुछ चीज़ें तो अनुभव कर के ही कही होंगी.. 


यह हमारे सबसे प्यारे कुत्ते स्व. श्री जैंगो जी की हैं. आपकी यह तस्वीर तबकी है (ड्रिप चढ़ते हुए) जब आप बीमार हो कर हॉस्पिटल में एडमिट थे. आज आपकी तीसरी  डेथ ऐनीवर्सरी है.. ईश्वर आपकी आत्मा को स्वर्ग प्रदान करे. 

यह बहुत बड़े साहित्यकार और ब्लॉगर भी थे.. यह हिंदी ब्लॉग्गिंग भी करते थे.. और हिंदी ब्लौगरों की तरह ऐसे ऐसे अखबारों और मैगजीन्स (अजीब अजीब नामों वाले..जनसंदेश टाइम्स टाइप)  में छपते थे.. जिन्हें कोई जानता भी नहीं था.. और जिन्हें कोई कुत्ता भी नहीं पूछता था.. उन्हें जैंगो जी पूछते थे और फ़िर छप कर बहुत खुश भी होते थे. उन्हें बहुत जल्दी ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा "डौगी स्टायल" ऑफ़ हिंदी ब्लॉग्गिंग का अवार्ड दिया जाने वाला है. आपने हिंदी के लिए भी बहुत काम किया लेकिन कोई भी काम इसीलिए काम नहीं नहीं आया क्यूंकि आज भी लोग इतने वाहियात हैं कि अपने बच्चों को इंग्लिश ही बुलवाना और पढवाना चाहते हैं. श्री. जैंगो जी हिंदी दिवस मनाने के बहुत खिलाफ थे क्यूंकि आपका मानना था कि इतनी रिच भाषा का दिवस मानना अपमान है. आपने भी बहुत सारे स्ट्रग्लर्स की तरह हिंदी के लिए बहुत काम किया लेकिन हिंदी का विकास पिछले सत्तर सालों की तरह आज भी नहीं हो पाया. इससे आप बहुत आहत थे. स्व.श्री जैंगो जी कहते थे कि लोग हिंदी के लिए अपने हाथों में कंडोम पहन कर काम करते थे जिस वजह से कोई रिज़ल्ट नहीं निकलता था. आपका यही मानना था कि लोग फैमिली प्लैनिंग ख़ुद के लिए ना कर के हिंदी के लिए ज़्यादा करते हैं. फ़िर भी हम और हमारा एन.जी.ओ. श्री. जैंगो जी के बताये हुए निशान पर चल रहा है. उम्मीद है कि आगे चल कर कोई ना कोई रिज़ल्ट निकलेगा. इसी आशा के साथ आईये ज़रा अब मेरी कविता देखी जाए..

जानवरों से गया बीता कोई ना रहा 

ज़हरीले जानवरों की 
सभा हो रही थी.
आदमी को नष्ट करने का
बीज बो रही थी.... 
कि हमारा ज़हर 
आदमी में फ़ैल रहा है.
आदमी आदमी के जीवन से खेल रहा है.
इतने में 
सभा में एक आदमी आया
तो ज़हरीले जानवरों का हुज़ूम 
चिल्लाया....
जानवरों के सभापति ने 
उन्हें चुप करते हुए कहा
कि अब 
तुमसे गया बीता इस 
धरती पर
कोई नहीं रहा. 

(c) महफूज़ अली 

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