शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009


सब कुछ भूल उड़ने की चाहत ज़िन्दा रह गई

दबी प्यास के ऊपर बहने लगी एक नदी

हर तरफ़ दिखने लगी घिरती हुई धुंध

घुप अंधेरे में दीवार से टकराते सर भी

कुछ न कर सके

शहर के बीचोबीच गुम हो गया वह चेहरा भी

जो निकला था अपनी पहचान बनाने के लिए॥

महफूज़ अली

1 टिप्पणियाँ:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

क्या बात है!!बहुत बढिया!

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