गुरुवार, 17 सितंबर 2009

यह घाँस बड़ी कीमती है........


कितनी लाचारी भूख में होती है

यह दिखाने के लिए एक भिखारी

लॉन की घाँस खाने लगा

घर की मालकिन में दया जगाने लगा।


दया सचमुच जागी

मालकिन आई भागी-भागी

कहती है "क्या करते हो भईया?"

भिखारी बोला , भूख लगी है

अपने आपको मरने से बचा रहा हूँ .....


मालकिन की आवाज़ में मिश्री सी घुली

और ममतामयी आवाज़ में बोली

कुछ भी ही ये घाँस मत खाओ।

मेरे साथ अन्दर आओ

चमचमाता ड्राइंग रूम , जगमगाती लौबी

ऐशो आराम के सभी ठाठ नवाबी

फलों से लदी हुई खाने की मेज़.....


और रसोई से आई महक बड़ी तेज़

तो भूख बजाने लगी पेट में नगाडे

लेकिन मालकिन उसे ले आई घर के पिछवाडे

भिखारी भौंचक्का सा देखता रहा।


मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा

नर्म है, मुलायम है, कच्ची है

इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से

ये घाँस अच्छी है ॥

42 टिप्पणियाँ:

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहु्त ही मार्मिक रचना । बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा

नर्म है, मुलायम है, कच्ची है

इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से

ये घाँस अच्छी है ॥ etni dhaya????wo bhi ek sath???ekatthi???had hai logo ke dil me aaj kal kitni daya aa gyee hai...ghaas kam ho jayegi ye bhi na socha.???

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

aapke likhne ke bare me to kaha nahi sorry ghar ki malkin ke bare me sochte bhool gyee...es baar ki rachna kuchh hatke par behad achhi.....

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

are waah !
aisi malkin sabko de bhagwaan
daya ki devi hai are narm ghaas dediya khane ko wo kya kam hai ?
Don't push your luck !!

ha ha ha ha
bahut khoob kya vyang hain Mahfooz Saheb..ab to ham aapke pankha hote jaa rahe hain..

likhte rahiye bas aise hi..

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

are waah !
aisi malkin sabko de bhagwaan
daya ki devi hai are narm ghaas dediya khane ko wo kya kam hai ?
Don't push your luck !!

ha ha ha ha
bahut khoob kya vyang hain Mahfooz Saheb..ab to ham aapke pankha hote jaa rahe hain..

likhte rahiye bas aise hi..

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

are ek baat to ham pooche hi nahi ye ghass khanewaale bande ki tasveer kahan mil gayi ?

aur rachna !
bahut hi lajwaab.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"और रसोई से आई महक बड़ी तेज़
तो भूख बजाने लगी पेट में नगाडे
लेकिन मालकिन उसे ले आई घर के पिछवाडे
भिखारी भौंचक्का सा देखता रहा।"

बहुत सुन्दर चित्रण।
कविता मानवीय दृष्टिकोण उजागर करती है!
बधाई!

संजय भास्‍कर ने कहा…

ये घाँस अच्छी है ॥
rachna !
bahut hi lajwaab.

http://sanjaybhaskar.blogspot.com

Mithilesh dubey ने कहा…

वाह महफूज भाई क्या बात है। आपकी ये रचना वास्तविकता को दर्शती है। बहुत खुब, लाजवाब व्यंग।

M VERMA ने कहा…

महफ़ूज जी
बहुत अच्छी घास है वाकई.
दो वर्गो की यही व्यवस्था है
बहुत सुन्दर

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन सजीव चित्रण.

"और रसोई से आई महक बड़ी तेज़
तो भूख बजाने लगी पेट में नगाडे
लेकिन मालकिन उसे ले आई घर के पिछवाडे
भिखारी भौंचक्का सा देखता रहा।"

क्या बात है.

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है.

बेनामी ने कहा…

कया बात है। अति सुन्दर। विचारों को पंख लगा देते हैं आप।

अनिल कान्त ने कहा…

hasun ya dukhi houn ?
waise rachna badi jandar hai !!

हिन्दीवाणी ने कहा…

आपकी कलम में तो जादू है। कितने शानदार तरीके से आपने अपनी बात कही है। बधाई।

शरद कोकास ने कहा…

महफूज़.. बहुत देर से दिमाग लगा रहा हूँ लेकिन समझ में नहीं आ रहा यह कविता है या लघुकथा .पता नहीं तुम्हे समझ में आया या नहीं जब समझ मे आ जाये तो बता देना ,वरना अपन इसे बाकी लोगों के लिये एक पहेली के रूप मे रख देंगे " घास की पहेली "( घाँस नहीं घास ) खैर जैसे इतिहास मे राणा प्रताप की घास की रोटी मशहूर है वैसे तुम्हारी यह "कथिता " (कथा + कविता =कथिता यह मेरा ताज़ा अविष्कार है )मशहूर हो । आमीन -शरद कोकास

shikha varshney ने कहा…

wah daya kuch jyada hi badti ja rahi hai insaanon main kya baat hai apna bageecha kharab kara lete hain log.
hahaha h
bahut badiya vyang or tasveer bhi kamal lagai hai.

Pappu Yadav ने कहा…

मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा
नर्म है, मुलायम है, कच्ची है
इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से
ये घाँस अच्छी है ॥
bahut hi dhaansoo vyang likha hai ji aapne. yah fard spasht roop se drishtigat hota hai hamre samaj mein. bahut hi acchi rachna.

Pappu Yadav ने कहा…

मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा
नर्म है, मुलायम है, कच्ची है
इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से
ये घाँस अच्छी है ॥
bahut hi dhaansoo vyang likha hai ji aapne. yah fard spasht roop se drishtigat hota hai hamre samaj mein. bahut hi acchi rachna.

वाणी गीत ने कहा…

क्या मालकिन है ...खूबसूरत व्यंग्य ...!!

Urmi ने कहा…

वास्तविकता को आपने बड़े ही सुंदर रूप से शब्दों में पिरोया है! आखिर मालकिन ने अपना रूप दिखा ही दिया! अक्सर ऐसा ही होता है जो लोग अमीर होते हैं उनका मन उतना ही छोटा होता है और निर्दयी होते हैं!

निर्मला कपिला ने कहा…

्रचना बहुत सही है आज के सच को दर्शाती मगर शरद जी सही कह रहे हैं इसे अन्यथा नहीं लेना।जो आपका शुभचिन्तक होगा वो हमेशा अच्छी सलाह देगा वर्ना वाह वाह करके तो सभी चले जायेंगे। आगर इसे लघु कथा मे लिखते तो बहुत अच्छी रचना बनती। विश्य बहुत अच्छा है ।शुभकामनायें

शेफाली पाण्डे ने कहा…

soch bahut achchhe hai....

संगीता पुरी ने कहा…

सच कडवा होता है .. पर अमीरों के दिल का वास्‍तविक चित्रण किया है आपने !!

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

Bhavnaon ke otprot behad umda rachana..bhai shandaar mahfooz bhai
bahut sundar rachan..badhayi..

Uttama ने कहा…

उम्दा लिखा है आपने, सटीक। पढ़ने का कौतूहल पैदा होता है।

Ambarish ने कहा…

नर्म है, मुलायम है, कच्ची है
इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से
ये घाँस अच्छी है ॥ ...

bahut sahi...

Mishra Pankaj ने कहा…

क्या गजब !!
ऐसा ही होता है

Saleem Khan ने कहा…

इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से ये घाँस अच्छी है ॥

great lines...

Saleem Khan ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

महफूज़ भाई,
बहुत ज्यादा हो गया........
मार्मिकता की इंतिहा हो गई,...........
सब कुछ ठाट-बाट दिखाते हुए जो मुलायम घास दिखवाई, भाई लाजवाब रह गया.

मेम साहब का भी जवाब नहीं.
भाईजान मेम साहब की शैक्षिक योग्यता भी तो लगे हात बता दीजिये और उस स्कूल का भी नाम जहाँ से ऐसे संस्कार दिए गए हैं. पढ़े -लिखों का ये हाल............

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

Saleem Khan ने कहा…

महफूज़ भाई मैं आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ, रचनाएँ पढ़ कर काफ़ी खुश हो जाता हूँ, दो वजह से एक तो आप इतनी अच्छी अच्छी रचनाएँ लिखते हैं, दुसरे मुझे मेरी पुरानी आदतों की अधूरी ख्वाहिश को थोड़ा पंख लग जाता है.

Asha Joglekar ने कहा…

Bhar kee ghas se ye ghas achchee hai. Daya ka aisa prawah ! Bahut sashakt.

अपूर्व ने कहा…

महफ़ूज़ भाई..व्यंग्य की चाशनी मे लपेट कर गरीबी की दयनीयता और अमीरी की apathy की कड़वी गोली खिला दी आपने.
वैसे यहाँ पर घाँस होगा या घास मैं sure नही हूँ..जरा कन्फ़र्म कर लीजियेगा.

सदा ने कहा…

भूख की मार्मिकता का चित्रण, सराहनीय प्रस्‍तुति ।

Unknown ने कहा…

भिखारी भौंचक्का सा देखता रहा।




मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा


नर्म है, मुलायम है, कच्ची है


इसे खाओ भईया, बाहर की घाँस से


ये घाँस अच्छी है ॥

bahut hi bhavbhivyakti se bhari hui mujhe to rula diya ..aapki rachana...

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर

ओम आर्य ने कहा…

A very unexpected ending...

it really dragged me in silence..

Good creation!!!!!!!!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut hi achhi rachna

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जबरदस्त व्यंग है .......... हास्य ही है पर आज के उच्च वर्ग की पोल खोलती है यह रचना ....... संवेदना सच में मर गयी लगती है कहीं न कहीं

लोकेन्द्र विक्रम सिंह ने कहा…

बहुत ही ख़ूबसूरत व्यंग मारा है..........
दो वर्गों की व्यथा पर.....

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है.वास्तविकता को आपने बड़े ही सुंदर रूप से शब्दों में पिरोया है खूबसूरत व्यंग्य ...!!बहुत सुन्दर

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