
टूटी कांच की चूडियाँ,
बूझी सिगरेट की राख,
दर्द से मदद को चिल्लाती,
और व्यर्थ में रोती॥
हजारों जूतों की आवाज़ ,
टूटा चेहरा,
खरोंच।
ऐसा पहली बार नही है........
पति के बदन से शराब की बदबू,
जो कोने में खड़ा माफ़ी मांगता,
और
आंसू बहाती,
टूटी औरत॥
महफूज़ अली
11 टिप्पणियाँ:
kamaal ka likhte hain huzur !!!
salaam...salaam...salaam
बहुत खूब सर!
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कल 29/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
bahut hi umda
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
शराब की बदबू,
जो कोने में खड़ा माफ़ी मांगता,
बहुत खूब....
सादर बधाई...
कई बार पढ़ा, समझने का फिर से प्रयास करूँगा। इस अच्छी कविता में 'हज़ार जूतों' वाले हिस्से को फिर से समझूँगा। बहरहाल इस शब्दकारी के लिए रचनाकार को बहुत बहुत बधाई।
ऐसा पहली बार नही है........
लेकिन फिर भी कितनी बार.......???
बेहद भाव पूर्ण मार्मिक प्रस्तुति...नारी की कोमलता ओर विवशता से उपजी टूटन ....सादर शुभ कामनायें
बहुत खूब ..एक दम सच्चा सच्चा
लिखा है आभार
बहुत मार्मिक दास्ताँ आपने पंक्तिओं में ढाल दी
kya khub kaha hai sir..............
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