"माँ - पिताजी , मैं घर आ रहा हूँ। "
कारगिल युद्ध समाप्त होने के छ: महीने बाद अपने माता - पिता को, श्रीनगर आर्मी बेस कैंप से, फ़ोन पर सूचित करते हुए, श्रवण , जो की भारतीय सेना में सिपाही था, बहुत हर्षित हो रहा था।
"माँ-पिताजी, मैं घर आने से पहले एक बात कहना चाहता हूँ," श्रवण ने कहा
"हाँ-हाँ , कहो " पिताजी ने खुश होते हुए कहा।
"वो बात ऐसी है .........की.......... मेरा एक दोस्त है जिसको मैं अपने साथ घर लाना चाहता हूँ। "
"हाँ............ ज़रूर लाओ, हमें भी काफ़ी अच्छा लगेगा उससे मिलकर," पिताजी ने कहा
"लेकिन ............ एक बात और है......... जो मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ की मेरा दोस्त युद्घ में काफ़ी घायल हो चुका है और बारूदी सुरंग पर पाँव पड़ने से वो अपना एक पैर और एक हाथ खो चुका है। उसके पास कहीं जाने के लिए कोई जगह भी नहीं है। मैं चाहता हूँ की वो हमारे साथ रहे। "
" हमें यह जानकर बहुत दुःख हुआ बेटे, उसे अपने साथ ले आओ, शायद हम उसको कहीं रहने के लिए मदद कर सकें। " पिताजी ने दुःख भरे स्वर में कहा ।
" नहीं ! पिताजी....... मैं चाहता हूँ की वो हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहे।"
"देखो! बेटा, "पिताजी ने कहा , " तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो। ऐसा अपाहिज आदमी हमारे ऊपर बोझ बन जाएगा......... और......... और....... हम उसकी ज़िन्दगी को ढो नहीं सकते। हमारी भी अपनी ज़िन्दगी है, और उसमें हम किसी को हस्तक्षेप करने नहीं दे सकते। मेरा कहा मानो तो तुम घर चले आओ और भूल जाओ उसे। वो अपना रास्ता ख़ुद तलाश कर लेगा। "
इतना सुन कर श्रवण ने फ़ोन रख दिया और काफ़ी दिनों तक अपने माता - पिता के संपर्क में नहीं रहा।
एक दिन श्रीनगर से सेना पुलिस का फ़ोन श्रवण के माता-पिता के पास आया की बिल्डिंग की छत से गिरकर श्रवण की मौत हो गई। सेना पुलिस का मानना था की श्रवण ने आत्महत्या की है। दुखी माता-पिता श्रीनगर पहुंचे। श्रीनगर पहुँच कर उनको श्रवण की पहचान करबे के लिए मुर्दाघर ले जाया गया। उन्होंने श्रवण को तो पहचान लिया , लेकिन, उन्होंने वो देखा जो उन्हें मालूम नही था। श्रवण का एक हाथ और एक पैर नहीं था............. ।
(मेरी यह लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक अख़बार "दैनिक जागरण" के साहित्यिक पृष्ठ 'पुनर्नवा' में सन २००६ में प्रकाशित हो चुकी है। और अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरुस्कार प्राप्त कर कर चुकी है : देखें हंस हिंदी मासिक पत्रिका नवम्बर २००६ ....। )
महफूज़ अली
6 टिप्पणियाँ:
अंतरात्मा को झकझोर देती है आपकी कहानी महफूज भाई, आभार।
महफूज़ जी बहुत ही भावपूर्णं कथा है। निशब्द हूं ।
Its a soul touching story...it deserved the award it got..perhaps many more..!
कहानी के आगाज़ मे अंत पता चल जाता है ..."वो " व्यक्ति कौन होगा ,ये भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है... फिरभी पूरी कथा पढ़े बिना खुदको रोका नही जा सकता !
इसीमे कथा की सफलता है ..सरल अल्फाज़ , जो दिल को भेद के उस पार निकल नही जाते ..दिल मे ही समा जाते हैं ..!
साथ , साथ आपकी काव्य रचनाएँ भी पढी ...हरेक रचना अपने आपमें अलग टिप्पणी की हक़दार है ...!
आपकी संवेदन शीलता आपके चेहरे पे साफ़, साफ़ झलकती है...!
एक संवेदन शील व्यक्ती ही इस तरह लिख सकता है.....
अनेक शुभ कामनायों और स्नेह सहित
शमा
very sad end....aapke likhne ke bare me kuch nahi kahna chahti.....kahne ki jarurat nahi shayad....ya fir se wahi shabad dohrana nahi chahti...
मार्मिक!
मार्मिक चित्रण.
बहुत ही दुःख हुआ यह कहानी पढ़कर.
आप कथा लेखन में कुशल हैं
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