गुरुवार, 9 जुलाई 2009

बोलो न ? क्या है राज़?


मैं जानना चाहता हूँ

तुम्हारी हर

मुस्कराहट का राज़........

कैसे तुम उड़ा देती हो?

सिर्फ़ एक हँसी में

मेरी ज़िन्दगी की

परेशानियों को

बेआवाज़ ।


मुझे

तपती धूप

में भी होता है

ठंडक का एहसास

तुम्हारे साथ।


कैसे झाँक लेती हो?

तुम मेरे अन्दर

और

देख लेती हो

उन नज़रिए को।


खिलखिला

उठता है मेरा मन्

उन गिले-शिकवों की जगह

देख के तुम्हारा वो

रेशमी आगाज़ ।


मेरे दर्द की

परछाईओं को

अपनी मुस्कराहट से

मिटा देने का अलग

है तुम्हारा अंदाज़,

बोलो ? ? ?

बोलो ना !!!!!!!!!

क्या है तुम्हारी

इस अदा

का राज़?





महफूज़ अली



6 टिप्पणियाँ:

तीसरी आंख ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

aapki es post se aisa lagta hai....sukoon sa pane laga hu mohabbat me,kaha gyee meri betabi nahi maloom....khoobsurat rachna....

शरद कोकास ने कहा…

प्रेम कविता में अब नये तथ्यों को लाईये यह उपमान पुराने हो गये हैं

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छी है.

बेनामी ने कहा…

बहुत बढ़िया !!

Urmi ने कहा…

मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और सुंदर टिपण्णी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया !
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई!

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