मैं बैठा सोच रहा था,
ज़िन्दगी के बारे में,
जिसे सब पा लेना चाहते हैं
जिसके रंगों में रंग जाना चाहते हैं
आख़िर ये ज़िन्दगी है क्या?
ख़्वाब या धुंध?
या फिर किसी की याद?
तभी यह लगा कि
ज़िन्दगी कभी आसमाँ है,
तो कभी दरिया...........
वक्त को न तो किसी की याद है
न ही तलाश ......
वक्त तो चलते रहने का ही
दूसरा नाम है...........
और लगा आख़िर में कि
यही चलना ही ज़िन्दगी है॥
महफूज़ अली
२३.09