सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

कोई भूमिका नहीं, भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता: महफूज़


आज कोई यहाँ वहां की भूमिका लिखने का मन नहीं है। टॉपिक तो कई हैं दिमाग में मगर लिखने का मन नहीं कर रहा है ... और ना ही किसी को ताने मारने का मन है ... और ना ही किसी की बेईज्ज़ती करने का मन है। आज सिम्पली एक कविता है मगर बिना मेरी कोई फोटो के .... आजकल मैं फोटो नहीं खिंचवा रहा हूँ क्यूंकि ज्यादा हेवी जिम्मिंग की वजह से अच्छी आ नहीं रहीं .... तो ब्लॉग पर डालने का कोई मतलब नहीं है। कविता ही देखी  जाए अब ... बिना भूमिका के लिखना अच्छा  भी नहीं लगता है।






भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता
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यहाँ चाय, पान, सिगरेट और नमस्ते 
शिष्टाचार नहीं 
वरन उसकी एक अलग अर्थवत्ता है,
मगर 
मेरे भीतर जो टूट फूट रहा है 
उसका कारण 
शहर की बाहरी होड़ ही है ....
पीपल की फुनगियों पर 
अँधेरे की कोंपलें फूट रही हैं 
और पड़ोस की छत्त पर 
चिकत्तों वाला कुत्ता घूम रहा है....

(c) महफूज़ अली  

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

फिनिक्स... सायकोलौजिकल प्रॉब्लम..."मैं"... मेंटल डिसऑर्डर... फिलौसोफिकली पागल और बंद अँधेरे का दंगा: महफूज़


मुझे आजकल ख़ुद के बारे में ऐसे लगता है कि मैं एक फिनिक्स पक्षी हूँ जो अपनी राख से ज़िंदा हो जाता है. इसे एक झूठा घमंड भी कह सकते हैं मगर यह घमंड आजकल मुझ पर ज़्यादा ही हावी है, सुपिरियरीटी कॉम्प्लेक्स शायद किसी सायकोलौजिकल प्रॉब्लम की वजह से चादर की तरह ओढा हुआ हूँ. बहुत सारी चीज़ें जो कभी मेरे लिए मायने नहीं  रखतीं थीं आज पता नहीं क्यूँ मायने रख रहीं हैं.. पहले मेरे लिए पैसा उतना मायने नहीं रखता था मगर आज बहुत रखता है. पहले मेरे लिए छोटे छोटे रिश्ते भी मायने रखते थे मगर अब कोई भी रिश्ता बिलकुल भी मायने नहीं रखते.. पहले मैं अमीर ग़रीब नहीं सोचता था मगर आज सोचता हूँ... पहले मेरे लिए किसी लड़की/महिला का नेचर बहुत मायने रखता था मगर आज सुन्दरता ज़्यादा मायने रखती है... पहले उम्र कोई मायने नहीं रखती थी... मगर आज रखती है. ऐसी ही और भी बहुत सी चीज़ें हैं जो अब वक़्त और ज़रूरत के हिसाब से बदलती गईं. 

मुझे अपने स्कूल टाइम के दोस्त अब बिलकुल भी पसंद नहीं हैं, आज भी कई क्लासमेट मिलते हैं तो मैं पहचानने से इनकार कर देता हूँ... और दो-चार ऐसे भी हैं जिनसे हमेशा मिलने को जी चाहता है... ज़्यादातर मुझे इसीलिए पसंद नहीं आते क्यूंकि उनके लिए वक़्त ठहरा हुआ है. फिनिक्स पक्षी मैं ख़ुद को इसलिए कहता हूँ क्यूंकि इन कई सालों में में मैं कई बार मरा हूँ और कई बार मर कर दोबारा ज़िंदा हुआ हूँ.. आजकल मैं काफी एग्रेसिव हूँ.. था तो शुरू से.. ही.. मगर कुछ लोगों का ख़्याल कर के चुप हो जाता था मगर अब सिर्फ ख़ुद का ही ख़्याल रहता है. अब मेरे मैं से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. और मेरी सबसे बड़ी प्रॉब्लम मेरा यही मैं है. मैं "मैं" से उबरना चाहता हूँ... इस  मैं से बाहर निकलना चाहता हूँ.. लेकिन जब भी अपने आस-पास देखता हूँ तो मुझे मेरा मैं ही ज़्यादा अच्छा लगता है. मैं अपने मैं से ख़ुद से ज़्यादा प्यार करने लगा हूँ.. और जो एक शेल यानी कि आवरण से बाहर आना ही नहीं चाहता, हो सकता है कि यह कोई मेंटल प्रॉब्लम हो मगर एक ख़ूबसूरत प्रॉब्लम है. 

अच्छा! जब इन्सान ज़्यादा फिलौसोफिकल होता है तो उसके वीउज़ भी ऐसे होते हैं जो समझ नहीं आते और दूसरों को पूरी पर्सनैलिटी ही डिस्टर्ब नज़र आती है तो किसी को मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर नज़र आता है. जबकि फिलौसोफी पूरी पर्सनैलिटी पर ढंकी होती है. फिलौसोफिकल स्टेट में बहुत सारी चीज़ें ऐसी भी होतीं है जो पैरा सायकोलॉजीकल होती हैं, जिसका एक फायदा यह होता है कि ऐसे स्टेट में आदमी ज़्यादा लिटररी क्रिएटिव होता है. इस डायरी टाईप ब्लॉग्गिंग का भी एक अपना अलग मज़ा है... जो मन में आये लिखते जाओ किसी दूसरे की टेंशन नहीं. मुझे तो वैसे भी दूसरों की टेंशन नहीं होती. मैं तो दूसरों को टेंशन देता हूँ. मुझे कुछ लोगों की बेईज्ज़ती करने में बड़ा मज़ा आता है.. इतने नालायक लोग हैं जिनकी मैं हमेशा बेईज्ज़ती करता रहता हूँ कि मेरी बातों को रिटैलीयेट भी नहीं कर पाते.. शायद पलायनवादी होना इसे ही कहते हैं.. लड़ ना सको तो भाग ही लो. भई मैं अब ज़्यादा नहीं बोलूँगा.. नहीं तो फ़िर से कोई एक अलग फ़ालतू का टॉपिक शुरू हो जायेगा.. बिना मतलब में, मैं जाहिलों से लड़ना नहीं चाहता और न ही लड़ सकता हूँ. कविता पढ़ी जाए ...कविता.. इसकी बात ही अलग होती है. अगर सही से मतलब ख़ुद के विचार से लिखी जाए तो भावनाओं को उभार देती है. 
(भई! फोटो का ब्लॉग पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है , यह सुबह जिम से लौटते वक़्त गोमती किनारे।।।)

बंद अँधेरे का दंगा 

सम्प्रदाय की सांकल 
हर बार 
एक बंद अँधेरा बजाता है 
क़ुरान की जिल्द कहीं
उधडती है तो 
गीता का सीवन
टूट जाता है।।।। 

विधवाएं 
उर्दू और हिंदी की अलग नहीं हैं 
जीने का ठंडापन 
दोनों में 
विलग नहीं है  
ज़र्जर दीन-ऐ-इलाही 
का पत्थर 
हर बार सिसकता है 
और फूट जाता है।

© महफूज़ अली 
 
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