सामान की तरह आदमी की खरीद फ़रोख्त जारी है,
अब नई पीढ़ी अपना फालतू वक़्त
भीड़ बन कर गुंडों के नेतृत्व में
हड़तालों, जुलूसों और धरनों में काट रही है।
विश्वविद्यालय
पत्रांक आने के बाद तक,
दयांक, भिक्षांक की यात्रा करते हुए
कुर्सी से चिपके सपेरों के कारण
लूटांक तक का भावी कार्यक्रम बना रहा है।
अवध एक नगरी थी,
लखनऊ एक पर्स है
जिसकी भीतरी दीवारों पर कंठे और कोतवाली
के पोस्टर चिपके हुए हैं,
जनतंत्र की क़तारों में खड़ा प्रदेश
स्वयं के बुझने से बेचैन नहीं है,
दरअसल अपनी पसलियों में सुरंग खोद रहा है।
कुछ नए हवाले देकर सम्बन्धों के पेट पर
"समाजवाद" लिख दिया गया है,
और बातचीत के बीच का संलाप धंधा हो गया है।
अब अँधेरा एक आदत है
जिसे हम रोज़ तम्बाकू की तरह
अपनी हथेलियों पर मसलकर
कुछ देर बाद
शहर की गलियों
पर थूक देते हैं।।
(c) महफूज़ अली
अब नई पीढ़ी अपना फालतू वक़्त
भीड़ बन कर गुंडों के नेतृत्व में
हड़तालों, जुलूसों और धरनों में काट रही है।
विश्वविद्यालय
पत्रांक आने के बाद तक,
दयांक, भिक्षांक की यात्रा करते हुए
कुर्सी से चिपके सपेरों के कारण
लूटांक तक का भावी कार्यक्रम बना रहा है।
अवध एक नगरी थी,
लखनऊ एक पर्स है
जिसकी भीतरी दीवारों पर कंठे और कोतवाली
के पोस्टर चिपके हुए हैं,
जनतंत्र की क़तारों में खड़ा प्रदेश
स्वयं के बुझने से बेचैन नहीं है,
दरअसल अपनी पसलियों में सुरंग खोद रहा है।
कुछ नए हवाले देकर सम्बन्धों के पेट पर
"समाजवाद" लिख दिया गया है,
और बातचीत के बीच का संलाप धंधा हो गया है।
अब अँधेरा एक आदत है
जिसे हम रोज़ तम्बाकू की तरह
अपनी हथेलियों पर मसलकर
कुछ देर बाद
शहर की गलियों
पर थूक देते हैं।।
(c) महफूज़ अली