ख़्वाहिश है,
पर रास्तों में कांटो की बारिश है,
किस कदर अपने क़दमों को रोकूँ मैं?
इधर कुआँ, तो उधर खाई नज़र आई है.
ख़्वाहिश तक पहुँचने की ख़्वाहिश,
दिल में दब गयी ऐसा लगा,
सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश
नाकाम रही,
लगा, मानों मंज़िल मेरे सामने खडी
हंस कर कह रही है,
"सपनों को सपना ही रहना दो,
पलकों की मीठी छाँव में सोने दो"
हकीकत से लड़ो, हकीकत का सफ़र तय करो,
फिर यह ख्वाहिश तुम्हारी .....
मैंने उस हंसी का परिहास किया
और कहा
"सपनों के रास्ते में हकीकत कि मंज़िल है,
मेरा विश्वास है, सपनों कि मंज़िल अब मेरे पास ही है."
अब
मेरे अन्दर एक नयी शक्ति का वास है,
कुछ भी कर सकना अब मेरे बस कि बात है..
धन्यवाद! किसको दूं मैं ?
उस मंज़िल के हास्य को या अपने उस परिहास को?
या उस पहचान को?
जो मेरी मंज़िल बन चुकी है..........