शनिवार, 31 दिसंबर 2011

औरों में राम तलाशेंगें, खुद के रावण को मारेंगें.... महफूज़


आज फिर कई महीनों के बाद हाज़िर हूँ. हालांकि लिखने के लिए कुछ ख़ास तो नहीं है फिर भी यही सोचा की साल ख़त्म होने को है तो कुछ नहीं तो नए साल की बधाइयाँ ही दे दी जाएँ और सांपला मीट में किये हुए वादे को भी निभा दिया जाये. अच्छा! मेरे साथ भी अजीब चीज़ है, मैं हिंदी नहीं लिखना चाहता क्यूंकि सिवाय हम नोर्थ इंडियंस के कोई समझता ही नहीं है... अभी पता नहीं कहाँ ... शायद फेसबुक पर ही कहीं पढ़ा था कि कोई बैंगलोर गया था तो उसने वहां पर हिंदी फिल्म स्टार्स के पोस्टर ही नहीं देखे और न ही वहां किसी हिंदी स्टार का कोई ख़ास क्रेज़ है. अपना भारत देश भी अजीब है... ऐसे नहीं कहा जाता है कि "अनेकता में एकता है". हिंदी के साथ एक चीज़ तो है.... कि यह जोडती है लेकिन सिर्फ नोर्थ इंडियंस को.... और जब हम ब्लॉग के थ्रू कहीं मिलते हैं भी तो वो भी सिर्फ नोर्थ इंडियंस के साथ. कई बार बहुत अजीब लगता है कि मेरे मेल बॉक्स में बहुत सारे इंडियंस यह मेल करते हैं कि आपकी वेबसाईट देखने में तो अच्छी है, लेकिन क्यूंकि हिंदी में है तो हमें समझ में नहीं आती और गूगल उसका ट्रांसलेशन ऐसे करता है जैसे मिक्स्ड कॉन्टिनेंटल सब्ज़ी. अभी यह भी पता चला है कि कोई इंडिया की  कौन्सटीट्युशनल बौडी है जिसने कहा है कि अब हिंगलिश का यूज़ करो, बात भी सही है अब "कुंजीपटल" किसके समझ में आएगा? अरे भाई सीधा सीधा बोलो न "कीबोर्ड" . यह सुनकर बहुत सारे ऐसे लोग फेसबुक पर उधम मचाने लगे थे जो खुद हिंगलिश बोलते हैं.  एक चीज़ मैंने और गौर की है जो नालायक इंसान होता है ना... वो सिस्टम, तहजीब, इंडिविजुअल, संस्कृति, धर्म और भी ना जाने क्या क्या सबकी बुराई ज़रूर करते हैं. अरे भई ! इतने ही लायक हो तो फेसबुक के बाहर आ कर लड़ाई करो न! कमरे के अन्दर बैठ कर तो कोई भी किसी को भी गाली दे सकता है.  मैं तो भाई हिंदी नहीं जानता ... आई मीन भारी भरकम हिंदी नहीं  जानता... और ना ही जानना चाहता हूँ. मैंने कई लोगों को देखा है हिंदी के इतने भारी भरकम शब्द इस्तेमाल करते हैं मानो उन्हें खुद उनकी ही इंटेलीजेंशिया पर डाउट है कि अगर वो इतने भारी भरकम शब्द इस्तेमाल करेंगे तभी इंटेलेक्चुयल कहलायेंगे. अरे भई ! ऐसे लिखो न कि समझ में आये, ऐसे मत लिखो कि सामने वाला पढ़ कर अपना सर दीवार में फोड़े. 

 अब ऐसा लग रहा है कि मैं भाषण दे रहा हूँ तो बंद करता हूँ और मुद्दे पर आता हूँ. मुद्दा यह है कि मैंने नए साल पर कविता लिखी है (हालांकि! यह कविता बहुत पहले ही लिखी थी..) और इस को कविता लिखने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी है क्यूंकि उसमें बहुत सारे वर्ड्स ऐसे हैं जिन्हें मैं जानता ही नहीं और कविता की लय मेंटेन करने के लिए डिक्शनरी (हिंदी) पढनी पढ़ी है. कुछ लोगों को यह भी लगेगा कि ऐसे कौन से वर्ड हैं लेकिन जिन लोगों को ऐसा लगेगा वही वर्ड मेरे लिए सबसे टफ होंगे.... एक बात तो है कि अपार्ट फ्रॉम ऑल आई लव हिंदी. 

नव वर्ष मुबारक हो

नव वर्ष मुबारक हो तुमको, 
जीवन में खुशियाँ आ जाएँ.
हो कलह, द्वेष, अभिमान मुक्त,
एक नया सवेरा खिल जाए.

तुमसा ना कोई इस जग में,
तुम सृष्टि का निर्माण करो,
मानव जीवन को पाकर तुम,
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग सुन्दर हो,
मन सुन्दर हो,
ना कोई ग़ैर-पराया हो,
सूरज बनकर ऐसे चमको, 
ना तम की कहीं पर छाया हो. 

लड़कर जीता सबने जग में,
बिन लड़े जगत पर राज करो,
हो ज़ुबां में ऐसी कारीगरी,
हर दिल में अपना घर कर लो,
हर दिल तुमसे मिलना चाहे,
हर दिल तुमसे फ़रियाद करे,
जाने के बाद जहाँ से भी, 
हर दिल तुमको ही याद करे.

कोई दीन ना हो, कोई हीन ना हो,
चारों ही तरफ खुशहाली हो.
ग़र दिन में ईद मने हरदम,
हर रात यहाँ दीवाली हो.
नव वर्ष सवेरे कसम हमें
यह नियम हमेशा पालेंगें,
औरों में राम तलाशेंगें
खुद के रावण को मारेंगें.

यह नया सवेरा जाग
तुमसे यह भरोसा मांग रहा,
नव भारत का निर्माण करो,
जग में सुन्दर यह काम करो.
सब एक बनें और नेक बनें,
सदगुण ही हमारा सारथि हो,
जाति हमारी इंसां की हो,
और धर्म हमारा भारतीय हो.

नव वर्ष मुबारक हो तुमको, 
जीवन में खुशियाँ आ जाएँ.
हो कलह, द्वेष, अभिमान मुक्त,
एक नया सवेरा खिल जाए.

 यह कविता भी क्या चीज़ है... लिखी तभी जाती है जब मन में भावनाएं हों. बिना भावनाओं के तो कुछ भी संभव नहीं है. कुछ ऐसा ही हाल गीतों का है, यह तभी समझ में आते हैं और लिखे जाते हैं जब मन में भावनाएं हों... कई बार ऐसा भी होता है कि हमारी फीलिंग्स कोई और लिख देता है और खुश हम हो जाते हैं. ऐसा ही फ़िल्मी गानों के साथ है इसे लिखता कोई और है किसी और की भावनाओं में और हमें लगता है कि यह सिर्फ हमारे लिए ही लिखा गया है. क्यूँ है न ऐसा? 

लीजिये इसी बात पर एक वीडियो पेश है: 



मंगलवार, 20 सितंबर 2011

भीतरी अँधेरा: महफूज़



मंदिर के शिखर पर  स्वर्ण कलश है
और देवताओं के शीश पर
बिड़ला का प्रतीक
उसी प्रतीक के ऊपर
एक बल्ब लगा है
ईश्वर के
भीतरी अँधेरे को बनाये रखने के लिए.

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

गोमती का बूढा जिस्म......

हमारे उत्तर प्रदेश (लखनऊ) में व्याप्त व्यभिचार और भ्रष्टाचार को ध्यान में रखते हुए यह कविता लिखी है, इस कविता के ज़रिये लखनऊ की प्रसिद्ध नदी गोमती को बिम्ब बना कर भ्रष्टाचार को डेपिक्ट किया है. यह कविता लिखी तो बहुत पहले थी लेकिन टाइम ही नहीं मिलता था पोस्ट करने के लिए. आज किसी तरह टाइम निकाल कर पब्लिश कर रहा हूँ. कभी कभी सोचता हूँ.....काश! वक़्त चौबीस घंटे से ज़्यादा का होता!!!!!!! 
                                          गोमती का बूढा जिस्म......

गोमती की बूढी आँखें थक गई हैं,
                                                          
उसका सिलवटों भरा चेहरा 
झुर्रियों भरी पलकों पर सूज गया है,
शहर अपनी आँखें खोता जा रहा है.
                                    
                                  टहनियों के रास्ते से तने की तरफ 
                                  उतरता हुआ शहर पुरानी जड़ों को 
                                  आज की कुदाली से खोदकर अब 
                                  और व्यस्तताओं की संस्कृति 
                                  स्वयं पर ढ़ोता जा रहा है.

संस्कृति की मद्धिम लौ वाली लालटेन को
शहर का उजला अँधेरा लगातार बुझा रहा है.
राजनीति के खोखले वृक्षों ने
अपनी अनगिनत नंगी डालों की भीड़ से ही
लखनऊ को ढांक दिया है.
                                          
                                          अब शहर के जिस्म पर लूट का अनुशासन है
                                          और
                                          गोमती महज एक टेढ़ी-मेढ़ी
                                          हड्डियों वाली कंकाल बन गई  है. 

बुधवार, 9 मार्च 2011

रिश्ते भी रिप्लेस होते हैं और शब्द भी रास्ते बदल देते हैं.


पूरे छह महीने के बाद आज ब्लॉग्गिंग करने का मन किया है.... कुछ हालात ऐसे नहीं थे... और कुछ विरक्ति सी थी... तो कुछ जो बिगड़ गया था उसे ही ठीक करने में टाइम लग गया... तो कुछ दिमाग़ में यह भी विउ था... कि यहाँ हिंदी ब्लॉग्गिंग में ... कुछ ख़राब लोग आ गए हैं... फ़िर यही सोचा कि अगर हम अच्छे तो सब अच्छे ....हम ख़राब तो सब ख़राब...  अब अच्छे-बुरे तो सब जगह होते हैं... हम भी कई लोगों के लिए ख़राब हैं... तो फ़िर यह क्यूँ सोचना... ? मतलब यह कि बहुत  सारे निगेटिव वीउज़ आ गए थे दिमाग़ में ब्लॉग्गिंग को लेकर... अब वही वीउज़ मिक्स्ड हैं... वैसे भी पौज़ीटिव्ज़  की ओर ही देखना चाहिए..... आज रिप्लेसमेंट थेओरी (Replacement Theory) पढ़ रहा था दोपहर में खाना खाते वक़्त... पढ़ते वक़्त यही सोचा ...कि इस दुनिया में हर चीज़ रिप्लेस हो जानी है... हर चीज़ की एक्सपायरी डेट है... ...  यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि ...  रिश्ते भी तुरंत ही रिप्लेस हो जाते हैं या फ़िर रिप्लेस हो जाने की सिचुएशन में आ जाते हैं.... ख़ैर फिलहाल ... आज यह कविता देखिये.... इन छः महीनों में बहुत कुछ लिखा है... वक़्त मिलता जायेगा तो पोस्ट भी करता जाऊंगा.... और अब यह वक़्त ही तो है... जो एक्सटिंक्ट है... एफेमेरल है... और यह बात समझ  में आ गई है. 


                                                            (फोटो कोई मिली नहीं तो अपनी ही डाल दी)
शब्दों ने रास्ते बदल दिए हैं... 


क़िताबों  में  से नये शब्द की तरह 
मैंने कई बार तुम्हे 
नोट किया है
फ़िर भी 
तुम मुझे  कभी याद
नहीं रह सकीं....
तुम उभर आई हो
उन ठन्डे शब्दों के भीतर भी
शब्दों के अर्थ ने भीतर के उदास कोने से उठकर 
फ़िर तुम्हारा स्वागत किया है,
उदासी हमारे भीतर की
आधी रह गई है,
दोनों के बीच रिप्लेसमेंट आ गया है.....
अब
शब्दों ने अपने पड़ाव
और
रास्ते
बदल दिए हैं.  
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