हमारे उत्तर प्रदेश (लखनऊ) में व्याप्त व्यभिचार और भ्रष्टाचार को ध्यान में रखते हुए यह कविता लिखी है, इस कविता के ज़रिये लखनऊ की प्रसिद्ध नदी गोमती को बिम्ब बना कर भ्रष्टाचार को डेपिक्ट किया है. यह कविता लिखी तो बहुत पहले थी लेकिन टाइम ही नहीं मिलता था पोस्ट करने के लिए. आज किसी तरह टाइम निकाल कर पब्लिश कर रहा हूँ. कभी कभी सोचता हूँ.....काश! वक़्त चौबीस घंटे से ज़्यादा का होता!!!!!!!
गोमती का बूढा जिस्म......
गोमती की बूढी आँखें थक गई हैं,
गोमती का बूढा जिस्म......
गोमती की बूढी आँखें थक गई हैं,
उसका सिलवटों भरा चेहरा
झुर्रियों भरी पलकों पर सूज गया है,
शहर अपनी आँखें खोता जा रहा है.
टहनियों के रास्ते से तने की तरफ
उतरता हुआ शहर पुरानी जड़ों को
आज की कुदाली से खोदकर अब
और व्यस्तताओं की संस्कृति
स्वयं पर ढ़ोता जा रहा है.
संस्कृति की मद्धिम लौ वाली लालटेन को
शहर का उजला अँधेरा लगातार बुझा रहा है.
राजनीति के खोखले वृक्षों ने
अपनी अनगिनत नंगी डालों की भीड़ से ही
लखनऊ को ढांक दिया है.
अब शहर के जिस्म पर लूट का अनुशासन है
और
गोमती महज एक टेढ़ी-मेढ़ी
हड्डियों वाली कंकाल बन गई है.