मंगलवार, 30 जून 2009

बोझ!!!!!!! : एक लघुकथा



"माँ - पिताजी , मैं घर रहा हूँ। "



कारगिल युद्ध समाप्त होने के : महीने बाद अपने माता - पिता को, श्रीनगर आर्मी बेस कैंप से, फ़ोन पर सूचित करते हुए, श्रवण , जो की भारतीय सेना में सिपाही था, बहुत हर्षित हो रहा था।

"माँ-पिताजी, मैं घर आने से पहले एक बात कहना चाहता हूँ," श्रवण ने कहा

"हाँ-हाँ , कहो " पिताजी ने खुश होते हुए कहा।

"वो बात ऐसी है .........की.......... मेरा एक दोस्त है जिसको मैं अपने साथ घर लाना चाहता हूँ "




"हाँ............ ज़रूर लाओ, हमें भी काफ़ी अच्छा लगेगा उससे मिलकर," पिताजी ने कहा




"लेकिन ............ एक बात और है......... जो मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ की मेरा दोस्त युद्घ में काफ़ी घायल हो चुका है और बारूदी सुरंग पर पाँव पड़ने से वो अपना एक पैर और एक हाथ खो चुका है उसके पास कहीं जाने के लिए कोई जगह भी नहीं है मैं चाहता हूँ की वो हमारे साथ रहे "




" हमें यह जानकर बहुत दुःख हुआ बेटे, उसे अपने साथ ले आओ, शायद हम उसको कहीं रहने के लिए मदद कर सकें " पिताजी ने दुःख भरे स्वर में कहा




" नहीं ! पिताजी....... मैं चाहता हूँ की वो हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहे"




"देखो! बेटा, "पिताजी ने कहा , " तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो ऐसा अपाहिज आदमी हमारे ऊपर बोझ बन जाएगा......... और......... और....... हम उसकी ज़िन्दगी को ढो नहीं सकते। हमारी भी अपनी ज़िन्दगी है, और उसमें हम किसी को हस्तक्षेप करने नहीं दे सकते मेरा कहा मानो तो तुम घर चले आओ और भूल जाओ उसे वो अपना रास्ता ख़ुद तलाश कर लेगा "




इतना सुन कर श्रवण ने फ़ोन रख दिया और काफ़ी दिनों तक अपने माता - पिता के संपर्क में नहीं रहा




एक दिन श्रीनगर से सेना पुलिस का फ़ोन श्रवण के माता-पिता के पास आया की बिल्डिंग की छत से गिरकर श्रवण की मौत हो गई सेना पुलिस का मानना था की श्रवण ने आत्महत्या की है दुखी माता-पिता श्रीनगर पहुंचे श्रीनगर पहुँच कर उनको श्रवण की पहचान करबे के लिए मुर्दाघर ले जाया गया उन्होंने श्रवण को तो पहचान लिया , लेकिन, उन्होंने वो देखा जो उन्हें मालूम नही था। श्रवण का एक हाथ और एक पैर नहीं था.............








(मेरी यह लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक अख़बार "दैनिक जागरण" के साहित्यिक पृष्ठ 'पुनर्नवा' में सन २००६ में प्रकाशित हो चुकी है और अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरुस्कार प्राप्त कर कर चुकी है : देखें हंस हिंदी मासिक पत्रिका नवम्बर २००६ .... )








महफूज़ अली

शनिवार, 27 जून 2009

कुछ पहलू........कुछ फलसफे...और कुछ कवितायें !!

१.

मैंने एक खिले हुए
फूल को तोडा था,
तो मैं तड़प गया था॥

मैंने नोचे थे पंख
एक परिंदे के
तो मैं बिलख उठा था॥

मैंने छेडा था एक
मोती की माला को
तो मैं बिखर उठा था॥
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२.

आज अगर मैं सोचता हूँ
तो बीच में कल आ जाता है
कल कल था
और कल कल होगा
यह याद आ जाता है॥
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३.

मैं तुमसे मिलूंगा
किसी किताब के पन्नों में
नाम अपना दर्ज
होने से पहले,
यह मेरा वायदा है
पर ठीक ऐसा ही हो
जैसा मैं कह रहा हूँ
यह कहना आज शायद
थोड़ा मुश्किल है,
पर कल ?????
नामुमकिन ज़रूर होगा॥
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४.

ख़्वाबों में झांकता हूँ
और गाता हूँ अपना ही राग
लंबे लंबे डगों से
लांघता हूँ दीवारों को
और
खोजता हूँ
उन खोये हुए
पलों को॥
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महफूज़ अली

सोमवार, 22 जून 2009

छू लिया आसमान!!


उसने पूछा की

'आसमान छूने जा रहे हो?'

मैंने कहाँ 'हाँ!!! '

उसने कहा .....

'छू लेना हाथ बढ़ा के

आसमान को '

और मुझे बताना

कैसा था?

फूल सा नाज़ुक

या

रुई सा नरम?


ले आना अपने साथ

थोड़ा सा अहसास

और

कराना महसूस

मुझे......


और मेरा ...............

आसमान....

अब मेरे पास है॥




महफूज़ अली

शनिवार, 20 जून 2009

अजनबी सी लगीं नहीं!!


कभी किसी महफिल

में तुम दिखीं नहीं,

कभी परियों के किस्सों

में भी तुम मिली नहीं।

न जानें क्यूँ फिर भी

मुझे तुम कभी

अजनबी सी

लगीं नहीं॥





महफूज़ अली

सोमवार, 15 जून 2009

खुशी

आज मैंने सुबह
अपने कमरे की खिड़की
खोली थी,
खिड़की के एक कोने में
बादल का एक छोटा सा
टुकडा था।

मैंने फिर पूरी खिड़की खोल दी
बाहर आँगन में
तारों भरे आसमान
के कई टुकड़े पड़े थे॥









महफूज़ अली

शुक्रवार, 12 जून 2009

मोमबत्ती की मौत!!!!!!!!!!!


वो गुलाबी मोमबत्ती,

सौन्दर्य बोध से भरपूर

पीली लपटों में कोलाहल करतीं

अपनी ही रौशनी से खेल रही थी।


उजली रात में भी

अँधेरा जशन मना रहा था

धरती काग़ज़ पर ख़्वाबों की

खेती कर रही थी,

मोमबत्ती फिर भी जल रही थी।


अँधेरा दुस्वप्न की तरह भाग रहा था

जलती पिघलती, मृत्यु-वेदना से शनैः-शनैः

धुंधली होती लपटों में,

मोमबत्ती चिल्ला रही थी

आख़िर कौन अमर होता है?
महफूज़ अली

गुरुवार, 11 जून 2009

माँ कि मौत.....


कोई लक्षण नहीं जीवन का

न कोई शब्द,

आहों का अंश भी नहीं

बंद आँखें ........

मैं असमंजस में था कि,

उन्होंने अलविदा भी नहीं कहा..........

यह कैसा मज़ाक है?

हम गले भी नहीं मिले

और उन्होंने आज मरने का दिन चुना

मैं सिर्फ़ एक पल के लिए जिया,

अलविदा कहने के लिए॥








महफूज़ अली

टूटी औरत !!


टूटी कांच की चूडियाँ ,
बुझी सिगरेट की राख,
दर्द से मदद को चिल्लाती
और
व्यर्थ में रोती......

हजारों जूतों की आवाज़
टूटा चेहरा

खरोंच,
ऐसा पहली बार नहीं है,
पति के बदन से शराब की बदबू
जो कोने में खडा माफ़ी मांगता
और आंसू बहती,
टूटी औरत॥








महफूज़ अली


मंगलवार, 9 जून 2009

दूर देश से आते बादल, न जाने कुछ कह जाते हैं.. ...... ...



ये छोटे छोटे पल न जाने क्यूँ याद आते हैं?


कभी तो दगा देते हैं


कभी पंख लगा कर यूँ मन में


उड़ जाते हैं जंगल में


जहाँ पर छूटा बचपन का एक कोना


और


दूर देश से आते बादल


न जानें कुछ कहते हैं।


बीता पल बचपन का


मैं फिर न पा सकूं


बस, एक याद बन कर रह जाए।


आज बैठता हूँ झुंड में कभी


तो मैं कहता हूँ


हाँ!


वो मेरी यादें हैं बचपन की
और सुनाने के लिए कहानी कुछ।


उन पलों को आज भी मैं भूलता नहीं


दे जाते हैं मन को दर्द कुछ


और


दूर देश से आते बादल


न जाने कुछ कह जाते हैं॥





महफूज़ अली

सोमवार, 8 जून 2009

मैं भी तुम्हे प्यार करता हूँ....

जब तुम मुझे प्यार करोगी,
सामने दीवार पर लगी कोई
तस्वीर
फिर जी उठेगी
और जी उठेंगे
अरमां
मेरे साथ
तेरे साथ॥

जब तुम मुझे प्यार करोगी
एक दूसरे की आँख में
दिए जलाकर
ढूँढने निकलेंगी सौगातें
रौशनी की।
फिर न ठाहरेगी कोई ओस की बूँद
बादलों पे
और बरस जाएँगी
तुम्हारे चेहरे पे जा कर॥

जब तुम मुझे प्यार करोगी
तो ये दुनिया ही बदल जायेगी
शोरोगुल में भी मैं वो बात सुन सकूंगा
जो तुम्हारे होठों से नहीं
निकलेगी तुम्हारी रूह से॥


जब तुम मुझे प्यार करोगी
तब
मुझे यह कहने की ज़रूरत नही होगी
की
हाँ!
मैं भी तुम्हे प्यार करता हूँ॥




(प्रस्तुत कविता प्रेरित है ...........)




महफूज़ अली

शनिवार, 6 जून 2009

यह क्या????

चाँद हमेशा की तरह मेरे साथ था,
पर , मैंने उससे कोई बात नहीं की
पत्थरों को देखा वो भी
बड़े मुलायम लगे
हवा मुझे पागल किए दे रही थी
पेडों का शोर अचानक बड़ा अच्छा लगा,
अन्दर का उमड़ता हुआ सा तूफ़ान
बाहर फैल गया॥




महफूज़ अली
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