दिन निकल आया,
रात टूट गई,
बात ही बात में ,
एक बात छूट गई।
याद है मुझे
शाम के धुंधलके में
टहलते हुए तुम्हारे साथ
आँगन में ,
उखाड़ा था मैंने एक पौधा
गुलाब के गमले से ,
कहकर कि खर-पतवार है
और अचानक तुमने टोक दिया था
कि रहने दो न !!!!!
यह प्यार का पौधा है
अपने आप ऊग आया है।
फिर न जाने क्या बात हुयी?
कौन सी गाँठ लगी
हमारे बीच में?
जो आज तक न खुल पाई,
जो अचानक रुकी थी
वो घड़ी भी न चल पाई।
वह शीशा न मिल पाया
जो गलतियों को दिखाता,
वो क़िताब ही खो गई,
पन्ने जिसके पलटता.......
सवाल तो मन में कई हैं
वो पौधा आज भी वहीँ है,
सवालों का जवाब मिले भी तो कैसे?
जब प्यार की ड़ाली ही टूट गई॥
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