मंगलवार, 5 अगस्त 2014

‪#‎## समंदर‬ आश्वासनों का: एक ‪कविता‬ ###



आश्वासनों के ढेर पर मैं गिर गया हूँ,
किनारा कोई दिखता नहीं 
भीड़ बढ़ती जा रही है 
ख़ामोश कमरा है, 
कहीं कोई निशान नहीं
आदमी हूँ कुर्सियों से डर गया हूँ....
अंत तक आकाश में,
प्रश्न करते सितारे,
आश्वासनों की रात में,
चलते नज़ारे,
नींव अंधी खोखली सी,
खा रही मुझको,
चाँद में 
समंदर उतर गया है....


© महफूज़

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...