ब्लॉग लिखने के लिए अलग से टाइम निकालना पड़ता है. मैं रोज़ सोचता हूँ कि कुछ ना कुछ लिखूंगा लेकिन टाइम नहीं मिल पाता है. जब हमें वक़्त का नुक्सान बिना किसी मतलब में हो जाता है तो उस बीते हुए पल की भरपाई बहुत मुश्किल से हो पाती है. और खासकर तब जब आप स्वाभिमान और अभिमान की वजह से वक़्त को खोते हैं तो यही दोनों मान फ़िर से आपका खोया हुआ वक़्त आपको वापस दिलाने में आपकी मदद करते हैं और फ़िर उसके लिए जद्दोजहद की जंग सामाजिक तौर पर शुरू हो जाती है. जब हमारा वक़्त ख़राब होता है ना तो हमें ऐसे लोग भी मिलते हैं जो हमारा वक़्त बिना मतलब में ज़ाया कराते हैं. तो ऐसे वक़्त में अच्छा बुरा पहचानने की ताक़त भी कम हो जाती है.
और ऐसे ही बुरे वक़्त में हम लोगों को सामजिक तौर भी नहीं पहचान पाते हैं. वक़्त ही एक ऐसी चीज़ है जो आप जितना चाहें उतना खो सकते हैं... और खोने के बाद कुछ पा नहीं सकते हैं. वक़्त को वेस्ट करने का सबका अपना अपना तरीका होता है और ज़्यादातर लोग अन्प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. कुछ लोग ब्लॉग लिखते हैं तो इतना लिखते हैं कि लोग सोचने लगते हैं कि यह आदमी काम क्या करता होगा? कुछ लोग फेसबुक पर बैठते हैं तो इतना बैठेंगे कि सामने वाला सोचेगा कि यह कोई धन्ना सेठ है.
कुछ लोग यहाँ वहां की यूँ ही गप्पें लड़ायेंगे या बिना मतलब की बहस में उलझेंगे और तो और कुछ लोग सिर्फ बातों ही बातों में देश की इकोनोमी और सिस्टम सुधार देते हैं. तो कुछ लोग प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. इनके अन्प्रोडकटिव काम भी प्रोडक्टिव होते हैं. मुझे ऐसा लगता है कि अगर पुरुष है तो उसे सिर्फ प्रोडक्टिव काम ही करने चाहिए और ऐसे काम करने चाहिए जो दिखाई दे और साक्षात नज़र आये. पुरुषों का बिना मतलब में वक़्त को बेकार करना बेमाने है.
पुरुष ऐसा ही अच्छा लगता है जो हर तरह से सम्पूर्ण हो मौरली, सोशली और फ़ाइनैन्शियलि. बिना कार, फौरेन ट्रिप्स, लेटेस्ट इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स, सेक्सुअलटी, फिज़िकल फिटनेस,यंगनेस, वेल-ग्रूम्नेस, ढेर सारी गर्ल फ्रेंड्स (अगर शादी-शुदा नहीं है तो) और अच्छे बैंक बैलेंस के बिना पुरुष अजीब लगता है जैसे चिड़ियाघर का ओरंगउटान. और यह सब पाने के लिए के लिए वक़्त को पकड़ना पड़ता है.
महिलायें भी ऐसे ही पुरुषों को ज़्यादा पसंद करतीं हैं जो वक़्त के हिसाब से सक्सेसफुल हो. इसीलिए वक़्त की बड़ी शौर्टेज रहती है. मैं हर काम प्रोडकटिवली ही करना चाहता हूँ. मेरे लिए ब्लॉग लिखना तब प्रोडक्टिव होगा जब मेरी ऊपर लिखी हुई सारी नीड पूरी हो रही होंगीं.
अब मैं पहले की तरह पढ़ता बहुत हूँ. पढने से क्या होता है कि दिमाग़ तो खुलता ही है और साथ ही में नये नये आईडियाज़ भी आते हैं. जैसे हमारे शरीर को खुराक की ज़रूरत होती है वैसे ही हमारे दिमाग को भी खुराक की ज़रूरत होती है और वो खुराक दिमाग़ को सिर्फ पढने से ही मिलती है, खासकर रिलीजियस टेक्स्ट्स. हम जब भी रिलीजियस टेक्स्ट पढेंगे चाहे वो किसी भी धर्म के क्यूँ ना हों, सबको पढ़ने के बाद यही लगेगा की यह तो सब एक ही बात कह रहे हैं. मैं बहुत जल्दी ही लखनऊ, कानपुर और गोरखपुर का ऐसा इतिहास बताने जा रहा हूँ जिसे अब तक के लिखा ही नहीं गया है और जिन्होंने लिखा है उन्हें कोई पहचानता ही नहीं तो वो इतिहास को लिखना एक तरह से उन गुमनाम लोगों को सामने लाना होगा जो अब तक पौलिटीक्ली डिबार्ड हैं. सब रिसर्च बेस्ड है. अब से मेरी पोस्ट्स सब हिस्टौरीकल डिसगाईज़ड फैक्ट्स पर कुछ दिन चलेंगीं. बीच बीच में कवितायें और बेमतलब की चीज़ें भी आतीं रहेंगीं.
(मैं अपने जिम ट्रेनर के साथ, नोट:फ़ोटोज़ का पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है)
अच्छा! फेसबुक की सबसे बड़ी ख़ास बात क्या है कि कहीं से भी ओपरेट किया जा सकता है. कार से, मोबाइल से और वाय-फाय से भी. यह हर जगह मिल जाता है. ब्लॉग के साथ ऐसा नहीं है. और फेसबुक को कोई सीरियसली लेता भी नहीं है. फेसबुक में पोस्ट की लाइफ सिर्फ चंद मिनट की ही होतीं हैं. मुझे फेसबुक में ताना मारना बहुत अच्छा लगता है. और मेरे तानों से जब कईओं की सुलगती है तो मेरे मेसेज बॉक्स में गालियाँ लिख कर भेजते हैं फ़िर भी मैं किसी को अन्फ्रेंद नहीं करता. हाँ! मुझे काफी लोग कर देते हैं. पता नहीं क्यूँ लोग मेरे तानों को अपने ऊपर ले लेते हैं जबकि मैं युनिवर्सली ताने देता हूँ. आईये मेरे कुछ बीते दिनों के फेसबुक स्टेटस देखे जाएँ.
ऐसे और भी बहुत से हैं. जो ख्याल आता रहता है तो मोबाइल/कंप्यूटर से स्टेटस डाल देता हूँ.

(मैं अपने गोरखपुर स्थित गौशाला और भैंस शाला में)
(गोरखपुर स्थित मेरा फार्म हाउज़ )
(यह मेरे खेत में एक कौवा जिसकी चोंच टूटी हुई है)
मैंने एक कविता लिखी है. कविताओं का भी अजीब हाल होता है कोई पढ़ता ही नहीं है फ़िर भी हम लिखते हैं. मुझे अब कई सारे कवि जिन्हें हमने स्कूल में में पढ़ा आज मुझे वो नालायक लगते हैं. सब सरकारों के तलवे चाट कर अपनी अपनी कवितायें स्कूलों में लगवा दिए और हमें उन लोगों को ज़बरदस्ती पढना पढ़ा. बचपना भी बड़ा अजीब होता है ... हम विरोध करने लायक नहीं होते और अगर विरोध करते तो बच्चा कह कर चुप करा दिए जाते.. और जब बड़े हो जाते तो सिस्टम के आगे मजबूर रहते. आईये कविता देखते हैं..
हमारी मजबूरी
क्या आपको ऐसा नहीं लगता
कि हमारी स्वतंत्रता
उस
मासिक धर्म की तरह है
जिसमें
हम बूँद बूँद खून लिए
झरते जाते हैं
मगर
ख़ुद के आगे भी
दाग़ भरे कपडे ना उठा पाना
हमारी मजबूरी है.
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अब मेरा फेवरिट गाना :