मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

दिन मरता है और नाखून की तरह उगता चला जाता है: महफूज़

(फोटो हैज़ नथिंग टू  डू विद द पोस्ट)
एक कविता -----

पिछला हफ्ता मैंने नाखूनों की तरह 

काटकर कचरे के ढेर में फ़ेंक दिया है। 
मगर दिन में भी नाखूनों की तरह 
रिजैनेरेटिव पावर होता है 
पुनः दिन 
उँगलियों में 
नाखूनों की तरह 
उगने लगा है।

नाखून की मीनारों में 
मैल भरने लगा है ...
धीरे धीरे शाम ढल रही है 
नाखून पूरा काला हो जायेगा 
और रात हो जाएगी।
जब यह रात असहनीय हो जाती है 
तो हम इसे नेलकटर से काट कर 
कूड़े के ढेर फ़ेंक आते हैं ...
और पुनः दिन नाखूनों में बढ़ने लगता है। 

नाखून और दिन में फर्क इतना ही है 
कि आदमी की मौत के साथ 
नाखूनों में रिजैनेरेटिव पावर 
समाप्त हो जाती है 
जबकि मरे हुए नाखून में भी 
दिन ... उन्ही पुराने दिनों की तरह 
डराता है।
मगर अब,
उसे कोई मारकर फेंकने वाला नहीं रहता 
यानि कि 
दिन नाखून बदल देता है 
उसमें पुनः डराने की शक्ति 
समाप्त नहीं होती 
याने दिन मरता है और उगता चला जाता है,
जबकि आदमी का नाखून 
मौत स्वीकार कर लेता है 
और 
उसका उगना 
बंद हो जाता है।

(c) महफूज़ अली 

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

मंगलसूत्र कहीं अटका हुआ है : महफूज़




पेश है मेरी एक अंग्रेजी कविता से प्रेरित यह कविता :

यह उन दिनों की बात है 
जब मेरा बचपन 
पिता की ढीली होती हुई पकड़ 
का गवाह हो रहा था। 

समझ की उम्र के साथ 
मैंने यह जाना 
कि माँ का सिर्फ सरनेम बदला है 
मगर पिता पूरी तरह बदल गए हैं। 

फिर मैं लड़ाई की उम्र में आ गया 
वर्षों तक लड़ने के बाद मैंने जाना 
कि रात से लड़ना बेवकूफी है,
इसे विश्राम की मुद्रा में 
धैर्य से भी काटा जा सकता है 
और यदि हम लड़ते रहे तो 
रात भर की लड़ाई में 
हम इतने थक चुके होंगे 
कि सुबह के सूरज का 
स्वागत करने की ताक़त 
हमारे रात भरे हाथों में नहीं होगी।

इसीलिए मेरी चीख चिल्लाहटें बेकार 
साबित हो गयीं ,
मैं यह देख नहीं पाता था कि 
साड़ी माँ ने पहनी है 
मगर 
मंगलसूत्र पिता के गले में 
अटका हुआ है 
और फिर 
उन आँखों में पिता तलाशना बहुत 
बड़ी बेवकूफी है,
जिनमें पिता ज़िंदा है। 

जिन उँगलियों में 
हम पिता तलाशते हैं 
वे स्पर्श की प्रतीक्षा करते हुए 
पति के हाथ हैं 
चौकलेट और लौलिपौप 
तो तुम्हे दर किनार करने का 
बहाना है। 
और 
वो स्कूल जिसकी टाट पट्टी पर 
तुम बड़े हो रहे हो 
तुम्हारी पढाई की तरह ही सस्ता है ,
जिसकी छतों से टपकते हुए पानी से 
तुम्हारे शरीर पर 
बड़े भाई का कुरता 
गीला हो गया है 
और तुम्हे 
पढ़ाने वाला टीचर 
घंटी के डर से 
शरीर की कतार से हताश
लौट आया है।

तुम 
एक अनिश्चय में जन्म लेकर 
दुसरे अनिश्चय में बड़े 
हो रहे हो ....
फिर 
तुम भी धीरे धीरे लड़ते हुए 
इतना थक जाओगे 
कि तुम्हारे भीतर से 
उभर कर मंगलसूत्र 
तुम्हारे गले में 
आ जायेगा 
फिर 
एक मिला जुला 
अनिश्चय 
जन्म लेगा 
और टपकती छतों और 
गीली टाट पट्टी 
पर भीगता हुआ 
बड़ा हो जायेगा। 

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

और आदमी आज़ाद हो जाता है : महफूज़



धीरे धीरे मैंने 
उसके भीतर 
सुख उंडेलने की शुरुआत की 
और 
उसकी पलकों के नीचे 
और ऊपर की चमड़ी 
झुर्रियाने लगी 
आँख बंद होती चली गयीं,
होंठ सीटियाँ बजाने लगे ... 
मैं रिसने को बेचैन 
अपनी गति बढाने जा रहा था।
गति बढती है तो 
कसाव निर्मम हो जाता है 
और आदमी 
भीतर की घुटन बाहर धकेल कर 
आज़ाद हो जाता है। 

रविवार, 11 नवंबर 2012

टाइम नहीं है ... लोकल लेवल पर छपे ऐसे लोग आत्महत्या भी नहीं कर लेते ... मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा और इन्हें अब जीने नहीं दूंगा: महफूज़

आजकल मेरे पास इतना टाइम नहीं होता कि ब्लॉग पोस्ट लिखूं या फिर ब्लॉग पर भूमिकाएं लिखूं ... एक चीज़ और है जो कि  समझ भी आ गयी कि  ब्लॉग और फेसबुकिंग तभी हो पाती है जब आप निरे निठल्ले, बेरोजगार और बिना किसी एम्बिशन के होते हैं और ऐम्लेसली ज़िन्दगी ढो  रहे होते हैं। अब तो मुझे यह नहीं समझ आता की कैसे लोग इतना टाइम निकाल कर कमेंट कर  लेते हैं हालांकि ऐसी ही फ़ालतू काम मैं भी कर चूका हूँ मगर वो मेरा टाइम ही ऐसा था जो खराब चल रहा था तो और कोई काम था ही नहीं फ़ालतू में यहाँ वहां कमेन्ट करने के अलावा। जैसे आज छुट्टी है और मैं फ़ालतू हूँ कोई काम धाम है नहीं सुबह तीन घंटे जिम में बिताये ..शाम धनतेरस के उसमें शौपिंग में बीतेगी ... और रात किसी रेस्ट्राओं में ... इसी बीच नालायक, ऐम्लेस, निठल्लों की तरह फ़ालतू टाइम था तो सोचा ज़रा हिंदी ब्लॉग्गिंग कर ली जाए। हिंदी ब्लॉग्गिंग का एक फायदा यह है कि  यहाँ आप जाहिलों, डिग्री धारक अनपढ़ों, ऐम्लेस लोग, और एक जगह बैठे रहने वालों से इंटरेक्शन कर के अपनी बात कह सकते हैं .. जाहिलों से इंटरेक्शन करना भी एक बहुत बड़ा आर्ट है जो मैं जानता हूँ। 
अभी हिन्द पॉकेट बुक्स की ओर  से मेरे पास तमाम पब्लिकेशन्स की किताबों की लिस्टिंग आई थी ... किसी भी नामी पब्लिकेशन में एक भी हिंदी का ब्लॉगर नहीं था ना ही कोई फेस्बुकिया था ... मेरे यह भी नहीं समझ में आता कि  ऐसी क्यूँ खुद के ही इज्ज़त में बम लगवाना ...यहाँ वहां से लोकल लेवल पर छप कर या  घर का पैसा यूँ ही नाली में बहा कर खुद को ही  छपवा कर सारे मोहल्लेवालों को ज़बरदस्ती अपनी किताब पढवाना ... 

अच्छा ! लोकली छपने के बाद ऐसे लोग आत्महत्या भी नहीं करते शर्म से ... कि  लोकल लेवल पर छपे हैं खुद का पेट काट कर किताब छपवाई है ... भई! ऐसे छपने से तो अच्छा  है आदमी तीन बार सकेसेफुल्ली सुईसाइड कर ले .... या फिर चम्मच में सूखा पानी लेकर डूब मरे ... ऐसा लगता है कि  हिंदुस्तान में हर नेटिया (आई मीन नेट यूज़र)  लेखक हो गया है और सबसे बड़ी बात यह  है कि  कोई इन्हें मानता भी नहीं फिर भी  खुद को मनाने में लगे हैं ... मंथन करना ज़रूरी है ... अब चलता हूँ ...   अपना क्या है ... स्कूल कॉलेज में हिंदी पढ़ी और लिखी नहीं ....यहीं इसी बात का मलाल हिंदी लिख पढ़ कर निकाल रहे हैं। 
(बिना मेरी फोटो के मेरी पोस्ट अच्छी नहीं लगती ना!)
आज यूँ ही एक कविता लिखी है ... कविताओं का भी कोई भरोसा नहीं होता ... पता नहीं क्या फीलिंग्स कब आ जाए और वो एक अलग मूर्त रूप ले ले .... देखा ही जाए अब कविता तो ... आज काजल कुमार जी ने एक स्टेटस डाला है फेसबुक पर कि "ब्लौगरों के कविताओं के इतने समूह-संकलन छप रहे हैं कि  लगता है कार्टून छोड़ कर कविताई कर ली जाए".... अब भाई बात भी  सही है ... सारा टैलेंट यहीं भरा हुआ है ... ही ही ही ...  .. निठल्ले, ऐम्लेस ... बेरोजगारों ...का समूह हो गया है अब ...  अरे मैं भी ना कविता लिखना भूल गया ... पता नहीं क्यूँ मुझे दूसरों की इज्ज़त में बम लगाने में बड़ा मज़ा आता है ... और यह सब इतने नालायक हैं कि  मेरा कुछ बिगाड़ भी नहीं पाते ... स्पाइंलेस फेलोज़ ... हुह ... 

मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा 

फ़िल्मी गानों में भी 
स्तर और लिहाज है 
हिंदी का बड़ा लेखक 
चुटकुले बाज़ है। 
यह देश, समाज और साहित्य 
के लिए 
दाद है, खुजली है, खाज है।
मैंने लेखक को गाली नहीं दी 
उसके पाप को दी है 
जनता को डसने वाले 
चुटकुले के सांप को दी  है ,
कलम की जूती ही इनकी नमाज़ है।
यह चुटकुलों में शान्ति के 
कबूतर उड़ाते हैं 
व्यवहार में इनसे कसाई भी डर जाते हैं 
इतिहास को  ना जानने  पर इन्हें बड़ा नाज़ है 
मैं जनता को ज़हर पीने नहीं दूंगा 
चुटकुलों पर इन्हें अब जीने नहीं दूंगा। 

(c) महफूज़ अली 

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

कोई भूमिका नहीं, भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता: महफूज़


आज कोई यहाँ वहां की भूमिका लिखने का मन नहीं है। टॉपिक तो कई हैं दिमाग में मगर लिखने का मन नहीं कर रहा है ... और ना ही किसी को ताने मारने का मन है ... और ना ही किसी की बेईज्ज़ती करने का मन है। आज सिम्पली एक कविता है मगर बिना मेरी कोई फोटो के .... आजकल मैं फोटो नहीं खिंचवा रहा हूँ क्यूंकि ज्यादा हेवी जिम्मिंग की वजह से अच्छी आ नहीं रहीं .... तो ब्लॉग पर डालने का कोई मतलब नहीं है। कविता ही देखी  जाए अब ... बिना भूमिका के लिखना अच्छा  भी नहीं लगता है।






भीतरी द्वंद्व और चिकत्तों वाला कुत्ता
----------------------------------------- 
यहाँ चाय, पान, सिगरेट और नमस्ते 
शिष्टाचार नहीं 
वरन उसकी एक अलग अर्थवत्ता है,
मगर 
मेरे भीतर जो टूट फूट रहा है 
उसका कारण 
शहर की बाहरी होड़ ही है ....
पीपल की फुनगियों पर 
अँधेरे की कोंपलें फूट रही हैं 
और पड़ोस की छत्त पर 
चिकत्तों वाला कुत्ता घूम रहा है....

(c) महफूज़ अली  

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

फिनिक्स... सायकोलौजिकल प्रॉब्लम..."मैं"... मेंटल डिसऑर्डर... फिलौसोफिकली पागल और बंद अँधेरे का दंगा: महफूज़


मुझे आजकल ख़ुद के बारे में ऐसे लगता है कि मैं एक फिनिक्स पक्षी हूँ जो अपनी राख से ज़िंदा हो जाता है. इसे एक झूठा घमंड भी कह सकते हैं मगर यह घमंड आजकल मुझ पर ज़्यादा ही हावी है, सुपिरियरीटी कॉम्प्लेक्स शायद किसी सायकोलौजिकल प्रॉब्लम की वजह से चादर की तरह ओढा हुआ हूँ. बहुत सारी चीज़ें जो कभी मेरे लिए मायने नहीं  रखतीं थीं आज पता नहीं क्यूँ मायने रख रहीं हैं.. पहले मेरे लिए पैसा उतना मायने नहीं रखता था मगर आज बहुत रखता है. पहले मेरे लिए छोटे छोटे रिश्ते भी मायने रखते थे मगर अब कोई भी रिश्ता बिलकुल भी मायने नहीं रखते.. पहले मैं अमीर ग़रीब नहीं सोचता था मगर आज सोचता हूँ... पहले मेरे लिए किसी लड़की/महिला का नेचर बहुत मायने रखता था मगर आज सुन्दरता ज़्यादा मायने रखती है... पहले उम्र कोई मायने नहीं रखती थी... मगर आज रखती है. ऐसी ही और भी बहुत सी चीज़ें हैं जो अब वक़्त और ज़रूरत के हिसाब से बदलती गईं. 

मुझे अपने स्कूल टाइम के दोस्त अब बिलकुल भी पसंद नहीं हैं, आज भी कई क्लासमेट मिलते हैं तो मैं पहचानने से इनकार कर देता हूँ... और दो-चार ऐसे भी हैं जिनसे हमेशा मिलने को जी चाहता है... ज़्यादातर मुझे इसीलिए पसंद नहीं आते क्यूंकि उनके लिए वक़्त ठहरा हुआ है. फिनिक्स पक्षी मैं ख़ुद को इसलिए कहता हूँ क्यूंकि इन कई सालों में में मैं कई बार मरा हूँ और कई बार मर कर दोबारा ज़िंदा हुआ हूँ.. आजकल मैं काफी एग्रेसिव हूँ.. था तो शुरू से.. ही.. मगर कुछ लोगों का ख़्याल कर के चुप हो जाता था मगर अब सिर्फ ख़ुद का ही ख़्याल रहता है. अब मेरे मैं से बढ़ कर कुछ भी नहीं है. और मेरी सबसे बड़ी प्रॉब्लम मेरा यही मैं है. मैं "मैं" से उबरना चाहता हूँ... इस  मैं से बाहर निकलना चाहता हूँ.. लेकिन जब भी अपने आस-पास देखता हूँ तो मुझे मेरा मैं ही ज़्यादा अच्छा लगता है. मैं अपने मैं से ख़ुद से ज़्यादा प्यार करने लगा हूँ.. और जो एक शेल यानी कि आवरण से बाहर आना ही नहीं चाहता, हो सकता है कि यह कोई मेंटल प्रॉब्लम हो मगर एक ख़ूबसूरत प्रॉब्लम है. 

अच्छा! जब इन्सान ज़्यादा फिलौसोफिकल होता है तो उसके वीउज़ भी ऐसे होते हैं जो समझ नहीं आते और दूसरों को पूरी पर्सनैलिटी ही डिस्टर्ब नज़र आती है तो किसी को मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर नज़र आता है. जबकि फिलौसोफी पूरी पर्सनैलिटी पर ढंकी होती है. फिलौसोफिकल स्टेट में बहुत सारी चीज़ें ऐसी भी होतीं है जो पैरा सायकोलॉजीकल होती हैं, जिसका एक फायदा यह होता है कि ऐसे स्टेट में आदमी ज़्यादा लिटररी क्रिएटिव होता है. इस डायरी टाईप ब्लॉग्गिंग का भी एक अपना अलग मज़ा है... जो मन में आये लिखते जाओ किसी दूसरे की टेंशन नहीं. मुझे तो वैसे भी दूसरों की टेंशन नहीं होती. मैं तो दूसरों को टेंशन देता हूँ. मुझे कुछ लोगों की बेईज्ज़ती करने में बड़ा मज़ा आता है.. इतने नालायक लोग हैं जिनकी मैं हमेशा बेईज्ज़ती करता रहता हूँ कि मेरी बातों को रिटैलीयेट भी नहीं कर पाते.. शायद पलायनवादी होना इसे ही कहते हैं.. लड़ ना सको तो भाग ही लो. भई मैं अब ज़्यादा नहीं बोलूँगा.. नहीं तो फ़िर से कोई एक अलग फ़ालतू का टॉपिक शुरू हो जायेगा.. बिना मतलब में, मैं जाहिलों से लड़ना नहीं चाहता और न ही लड़ सकता हूँ. कविता पढ़ी जाए ...कविता.. इसकी बात ही अलग होती है. अगर सही से मतलब ख़ुद के विचार से लिखी जाए तो भावनाओं को उभार देती है. 
(भई! फोटो का ब्लॉग पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है , यह सुबह जिम से लौटते वक़्त गोमती किनारे।।।)

बंद अँधेरे का दंगा 

सम्प्रदाय की सांकल 
हर बार 
एक बंद अँधेरा बजाता है 
क़ुरान की जिल्द कहीं
उधडती है तो 
गीता का सीवन
टूट जाता है।।।। 

विधवाएं 
उर्दू और हिंदी की अलग नहीं हैं 
जीने का ठंडापन 
दोनों में 
विलग नहीं है  
ज़र्जर दीन-ऐ-इलाही 
का पत्थर 
हर बार सिसकता है 
और फूट जाता है।

© महफूज़ अली 
 

रविवार, 9 सितंबर 2012

श्री. जैंगो जी की बरसी... जानवरों से गया बीता कोई ना रहा ... और डौगी स्टायल ऑफ़ हिंदी ब्लॉग्गिंग अवार्ड : महफूज़


कहा जाता है कि घर में हमेशा कोई जानवर पालना चाहिए... इससे घर की सारी बलाएँ दूर रहतीं हैं... हमारे बड़े बुजुर्गों ने कुछ चीज़ें तो अनुभव कर के ही कही होंगी.. 


यह हमारे सबसे प्यारे कुत्ते स्व. श्री जैंगो जी की हैं. आपकी यह तस्वीर तबकी है (ड्रिप चढ़ते हुए) जब आप बीमार हो कर हॉस्पिटल में एडमिट थे. आज आपकी तीसरी  डेथ ऐनीवर्सरी है.. ईश्वर आपकी आत्मा को स्वर्ग प्रदान करे. 

यह बहुत बड़े साहित्यकार और ब्लॉगर भी थे.. यह हिंदी ब्लॉग्गिंग भी करते थे.. और हिंदी ब्लौगरों की तरह ऐसे ऐसे अखबारों और मैगजीन्स (अजीब अजीब नामों वाले..जनसंदेश टाइम्स टाइप)  में छपते थे.. जिन्हें कोई जानता भी नहीं था.. और जिन्हें कोई कुत्ता भी नहीं पूछता था.. उन्हें जैंगो जी पूछते थे और फ़िर छप कर बहुत खुश भी होते थे. उन्हें बहुत जल्दी ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा "डौगी स्टायल" ऑफ़ हिंदी ब्लॉग्गिंग का अवार्ड दिया जाने वाला है. आपने हिंदी के लिए भी बहुत काम किया लेकिन कोई भी काम इसीलिए काम नहीं नहीं आया क्यूंकि आज भी लोग इतने वाहियात हैं कि अपने बच्चों को इंग्लिश ही बुलवाना और पढवाना चाहते हैं. श्री. जैंगो जी हिंदी दिवस मनाने के बहुत खिलाफ थे क्यूंकि आपका मानना था कि इतनी रिच भाषा का दिवस मानना अपमान है. आपने भी बहुत सारे स्ट्रग्लर्स की तरह हिंदी के लिए बहुत काम किया लेकिन हिंदी का विकास पिछले सत्तर सालों की तरह आज भी नहीं हो पाया. इससे आप बहुत आहत थे. स्व.श्री जैंगो जी कहते थे कि लोग हिंदी के लिए अपने हाथों में कंडोम पहन कर काम करते थे जिस वजह से कोई रिज़ल्ट नहीं निकलता था. आपका यही मानना था कि लोग फैमिली प्लैनिंग ख़ुद के लिए ना कर के हिंदी के लिए ज़्यादा करते हैं. फ़िर भी हम और हमारा एन.जी.ओ. श्री. जैंगो जी के बताये हुए निशान पर चल रहा है. उम्मीद है कि आगे चल कर कोई ना कोई रिज़ल्ट निकलेगा. इसी आशा के साथ आईये ज़रा अब मेरी कविता देखी जाए..

जानवरों से गया बीता कोई ना रहा 

ज़हरीले जानवरों की 
सभा हो रही थी.
आदमी को नष्ट करने का
बीज बो रही थी.... 
कि हमारा ज़हर 
आदमी में फ़ैल रहा है.
आदमी आदमी के जीवन से खेल रहा है.
इतने में 
सभा में एक आदमी आया
तो ज़हरीले जानवरों का हुज़ूम 
चिल्लाया....
जानवरों के सभापति ने 
उन्हें चुप करते हुए कहा
कि अब 
तुमसे गया बीता इस 
धरती पर
कोई नहीं रहा. 

(c) महफूज़ अली 

बुधवार, 25 जुलाई 2012

माँ का वजूद, मॉम..रश्मि प्रभा, क्यूँ लोग ख़ुद को किसी की भी ज़िन्दगी में अपना वजूद इम्पौरटेंट समझते हैं, ऐटीट्युड और जब शरीर से सम्बन्ध बाहर निकल जाते हैं : महफूज़


हर मर्द के ज़िन्दगी में माँ का होना बड़ा ज़रूरी होता है क्यूंकि एक माँ ही होती है जो बच्चे को समझती है. मेरी माँ कहतीं थीं  हमें जाहिलों के मुँह नहीं लगना चाहिए... यह सोचते और पढ़ते  कुछ और हैं और समझते कुछ और हैं... जाहिल आदमी बहस ज़्यादा करता है जबकि समझदार आदमी कन्फ्यूज़ रहता है.  माँ अगर बच्चे की पहली गलती है तो भी समझती है, दूसरी है तो भी समझती है , तीसरी है तो भी और यह सिलसिला पूरी ज़िन्दगी चलता रहता है. जब तक के बच्चा बूढा ना हो जाये. पता नहीं क्यूँ लोग ज़बरदस्ती गलतियां मनवाते है... और एक माँ होती है जो हर हर गलती को ढांकती है. पता नहीं क्यूँ लोग दोस्त होने का दम भरते हैं और एक माँ होती है जो हमेशा दोस्त ही रहती है. लोग भले ही पल में नकार दें लेकिन माँ किसी भी हालत में नहीं. माँ किसी भी हालात में पास ही रहती है.  अच्छा मेरे समझ में एक बात और नहीं आती कि क्यूँ लोग ख़ुद को किसी की भी ज़िन्दगी में अपना वजूद इम्पौरटेंट समझते हैं? मेरे ख्याल से माँ से बढ़कर शायद ही किसी और का वजूद ज़िन्दगी में मायने रखता है..  बाक़ी तो आते हैं और फ़िर जाते भी हैं.. फर्क तो माँ के ना रहने से पड़ता है... रश्मि प्रभा मॉम... मुझे बहुत ख़ुशी है कि आप मेरी ज़िन्दगी में माँ के रूप में आईं. 

आईये अब ज़रा कविता देखी जाए... बहुत साल पहले सिविल की तैयारी करते वक़्त .. एक काग़ज़ की दुकान से बड़े ऐ-2 साइज़ के पन्ने खरीदे थे.... सस्ते मिलते थे .... मैं और मेरा दोस्त इन्दर हम दोनों फ़िर उन ढेर सारे पन्नों को लेकर मोची के पास गए थे कि इन्हें चार पार्ट में काट कर सिल दो.. जिससे कि वो रफ कॉपी की शक्ल में आ जाएँ. मोची ने उनको सिलने से मना कर दिया था कि पाप चढ़ेगा. हमने उसे समझाया कि भाई किताब सिलने से पाप नहीं चढ़ेगा. किसी तरह माना वो और उसने सिल दिया.  उन दिनों पैसे नहीं होते थे और जो पैसे घरवालों से मांगते थे वो बाक़ी चीज़ों जैसे चाय, सिगरेट, गर्ल फ्रेंड, और प्रतियोगिता दर्पण.....सी.एस.आर...द हिन्दू... खरीदने में चले जाते थे. उन्ही काग़ज़ के बचे हुए पन्नों पर पिछले साल जब मैं हाईबरनेशन की ज़िंदगी किसी कारणवश गुज़ार रहा था तो काफी कवितायें लिखी थीं. उन्ही पन्नों से कविता निकाल कर उनके शब्दों को अपने ब्लॉग पर बिखेरता रहता हूँ.... 

अच्छा मेरे साथ एक बात और है कि मैं किसी को भी अपने पास तभी आने देता हूँ जब मैं चाहता हूँ. मैं अपनी मिस्ट्री जल्दी नहीं खोलता हूँ.. और लोग बिना मतलब में कन्फ्यूज़ रहते हैं. और मुझे किसी भी रिश्ते को जो मुझे दर्द दे रहा है.. फ़ौरन ख़त्म करने में देर नहीं लगाता. मेरे लिए कोई भी रिश्ता कभी भी मायने नहीं रखता सिवाय माँ का.. अगर मेरी माँ आज ज़िंदा होती.. तो मैं रोज़ उसके पैर धो कर .. फ़िर वही पानी पी कर अपने काम पर जाता... लोग पता नहीं क्यूँ गलत सोच लेते हैं? घमंड तो नहीं ...हाँ! ऐटीट्युड कह सकते हैं. मैं बहुत ही ऐटीट्युड वाला इन्सान हूँ.. इससे कोई क्या मेरे बारे में सोचता है मुझे फर्क कोई नहीं पड़ता.  मेरे लिए क्लास बहुत मायने रखता है. क्लास का मतलब पैसे से बिलकुल नहीं है. आजकल चार-पांच करोड़ रूपये तो हर किसी के घर में मिल जाते हैं. इसीलिए पैसे से बिलकुल नहीं है. क्लास बहुत ही डिफरेंट चीज़ होती है.. जो सिर्फ पर्सनैलिटी में झलक सकती है. सोशियो-सायको-अंडरस्टैंडिंग बिहेवियर भी कोई चीज़ होती है. लोग डिग्रियां तो ले लेते हैं लेकिन उन डिग्रीज़ को अपने अंदर ऐबजौर्ब नहीं कर पाते (एक मिनट ज़रा ऐबजौर्ब की हिंदी डिक्शनरी में देख कर आया..वी कॉन्वेंट बैक्ग्राउन्ड्स आर हैविंग ए लौट्स ऑफ़ प्रॉब्लम इन हिंदी ..यू नो..) हाँ! ऐबजौर्ब का मतलब आत्मसात करना होता है. तो डिग्रीज़ को अपने अंदर तक आत्मसात करना होता है. मैं भी कहाँ कविता की बात कर रहा था.. और कहाँ पहुँच गया.. आईये देखिये..कविता. मैं अपने हिंदी के गुरु अपने मित्र  के मामा जी और मेरे भी ... श्री. उपाध्याय जी का बहुत शुक्रगुज़ार हूँ. आप मुझे हिंदी की टुईशन (प्रोनन्सियेशन टुईशन है ... ट्यूशन नहीं होता) देते हैं. मेरी यह कविता हिंदी-इंग्लिश मिक्स्ड थी.. .....जिसे श्री. उपाध्याय जी ने हिंदी के शब्दों में ढाला है. 
(ऐटीट्युड तो आता ही है)

जब शरीर से सम्बन्ध बाहर निकल जाते हैं 

नामालूम वर्षों का वेग,
लहरों के भीतर के मरोड़,
सभी जिस्म से
काई की तरह निकल जाते हैं 
और सिर्फ निर्मल
और साफ़ जल रह जाता है. 
इसीलिए इस आदम खेल में 
आज भी आनंद बसा हुआ है.
शरीर से इगो निकल जाता है.
बस आदमी
और केवल औरत बच जाती है ,
सम्बन्ध 
वेग की शक्ल अख्तियार करता है,
और बह जाता है 
समूचे जिस्म में....
एक पल 
शरीर में ऐसा आकर ठहरता है
जब समूचे सम्बन्ध झरने के वेग में
जिस्म से बाहर निकल जाते हैं.
और वो एक पल 
पैर से लेकर सर तक 
फैल जाता है, 
आदमी, ताज़गी से भर जाता है 
जब शरीर से सम्बन्ध बाहर निकल जाते हैं 
तब 
असंबंधित मनुष्य 
बिलकुल खाली हो कर भी 
बहुत कुछ अपरिचित से भर जाता है.
यह भराव 
उसे ताज़ा बनाये रखता है 
और फ़िर धीरे धीरे 
वो फैला हुआ क्षण 
सिमटने लगता है 
और
सारा जिस्म
फ़िर पुराने संबंधों से भरने लगता है 
मगर वो भराव 
इन उलझे संबंधों को 
सुलझाने की नई ताकत देता है
और 
आदमी नये सिरे से 
जुझारू हो जाता है. 

(c) महफूज़ अली 
(मेरे घर में सब कहते हैं कि बुड्ढा लग रहा है बे ...वेट बहुत बढ़ गया था ..कोक पी पी कर। फिर भी बिना फोटो के मेरी पोस्ट्स अधूरी रहतीं हैं, यह जब गर्मी से निजात पाने गया था)


सोमवार, 16 जुलाई 2012

फिर से थोड़ी सी बकवास, कौन क्या क्या बना देता है और खुराक भर ज़िन्दगी: महफूज़


अभी लौटा हूँ गोरखपुर से तो रस्ते में कविता लिखी. अच्छा ट्रेन एक ऐसी जगह है जहाँ आपके साथ वेरायटीज़ ऑफ़ घटनाएँ घटती रहतीं हैं. आज हुआ क्या कि हमने देखा कि पैसे में बहुत बड़ी ताक़त होती है ...हम हमेशा जनरल का टिकट लेते हैं पर बैठते  ए.सी. में ही हैं... आज जिस आदमी की आर.ए.सी. कन्फर्म होनी थी टी टी ने वो बर्थ हमें दे दी. हम भी चौड़े होकर अपनी बर्थ लेकर दोनों पैर फैला कर बैठ गए. इसी बीच में शिवम् का फोन आया कि भैया बधाई हो. हम बड़े परेशां कि शिवम् को कैसे पता चला कि हमने आर.ए.सी. वाले की बर्थ झटक ली है? तो पता चला कि हमें दोबारा कहीं का प्रेसिडेंट बना दिया गया है. शिवम् ने हमसे बताया कि फलाने ब्लॉग पर है हम खुद शिवम् के ब्लॉग पर नहीं जाते हैं तो उस फलाने ब्लॉग कैसे जाते? लेदेकर हम सिर्फ प्रवीण पाण्डेय, डॉ, दराल और सिवाय शिखा के कहीं नहीं जाते तो भला उस ब्लॉग पर कैसे जाते? हमने कहा कि भई शिवम् हम चीज़ ही ऐसी हैं कि कौन हमें क्या क्या बना देता है हमें भी नहीं पता चलता ... कौन क्या करता है उससे मुझे क्या मतलब? इसी तरह कई बार हम चूतिया और बेवकूफ भी बन जाते हैं...वैसे यह दोनों हम सिर्फ प्यार में ही बनते हैं. हम यह जानते हैं कि जिस दिन हम अगर कुछ भी बनना चाहें न तो तो वो बन कर ही रहेंगे, कोई अगर नहीं भी बनाएगा तो भी हमारे में वो ताक़त है कि हम खुद को बनवा ही लेंगे. हम तो ऐसे आदमी हैं जो शांत रहते हैं जब तक के कोई छेड़े न ... अगर किसी ने छेड़ दिया तो हम बर्रा का छत्ता बन जाते हैं.   अरे बाप रे .. देखिये हम भी कितने बड़े वो हैं हम कहाँ कविता की बात कर रहे थे... और कहाँ हम फ़ालतू की बकवास ले कर बैठ गए. आईये भई... ज़रा हमारी कविता भी पढ़ी जाये.. 
(बिना हमारी फोटो के हमारी पोस्ट ही नहीं पूरी होती, यह हम अभी घूमने गए थे)

ख़ुराक  भर ज़िन्दगी 

मेरे अंदर का पहाड़
अब हिचकोले नहीं खाता,
उसे 
कोफ़्त नहीं होती 
इस कमरे से 
उस बरामदे के 
सफ़र के बीच 
और ख़ुराक भर ज़िन्दगी से..

बुधवार, 27 जून 2012

मन की सुन्दरता, लव, सेक्स और धोखा कुछ भी नहीं: महफूज़


आज मैंने फेसबुक पर सुश्री डॉ. शरद सिंह जी की एक पोस्ट से इंस्पायर्ड एक अपनी सोच के हिसाब से स्टेटस डाला कि "लोग कहते हैं कि मन की सुन्दरता देखो, लेकिन मन की सुन्दरता जैसी कोई चीज़ है ही नहीं. हम सबसे पहले बाहरी सुन्दरता ही देखते हैं. और जब हमारा कम्युनिकेशन इस्टैबलिश हो जाता है तब हम मन भी देखते हैं. हम प्यार भी करते हैं तो सुन्दरता देख कर ही.. उसके बाद मन .. मन अगर खराब होता है तो उसके बाद सारी सुन्दरता धरी रह जाती है. लेकिन मन की सुन्दरता नाम की कोई चीज़ विदाउट कम्युनिकेशन है ही नहीं और जब कम्युनिकेशन हो जाता है तो भी मन की सुन्दरता मायने नहीं रखती क्यूंकि लव एंड सेक्स एक दूसरे के कौनटेम्पोरैरी हैं.. बिना सेक्स का ख्याल लाये लव हो ही नहीं सकता". 

काफी लाईक्स और कमेंट्स मिले खासकर मेसेज इन्बोक्स में. कुछ ने मुझे डेयरिंग कहा तो कुछ ने बहुत सलीके से अपनी बात रखी. ज़्यादातर लोगों ने सपोर्ट किया. मेरी कुछ महिला मित्रों ने फ़ोन पर कमेन्ट किया तो कुछ महिलाओं ने इन्बोक्स में. कुछ ने कहा कि तुम्हारा कॉन्वेंट बैकग्राउंड तुम्हे ज़्यादा एक्स्ट्रोवेर्ट बनाता है. पुरूषों ने काफी सपोर्ट किया. लन्दन स्थित तेजेंद्र शर्मा जी ने इसी बात पर एक कहानी भी लिखी थी. इसी टॉपिक पर उन्होंने मुझसे वादा किया है कि वो कहानी मुझे देंगे. 
(वैसे डिस्क्लेमर नीचे लगा है)
तो मैं कह रहा था कि मन सुन्दरता जैसी कोई चीज़ है ही नहीं. अब सवाल यह है कि मन की सुन्दरता हम कैसे जानेंगे? ज़ाहिर है हम किसी के मन को तभी जानेंगे जब हम उससे पर्सनली कॉन्टेक्ट में होंगे, जब हम पर्सनली कॉन्टेक्ट में ही नहीं होंगे तो मन की सुन्दरता को कैसे जानेंगे? तो सबसे पहले हम किसी से भी पर्सनल कॉन्टेक्ट में आयेंगें और जब पर्सनल कॉन्टेक्ट में आयेंगे तो सबसे पहले उसकी बाहरी सुन्दरता ही देखेंगे. कोई भी इन्सान बदसूरत और बेढंगे लोगों को नहीं पसंद करता है... इसीलिए सबसे पहले बाहरी आवरण से ही जुड़ता है. अगर आप सुंदर हैं और सुन्दरता के साथ आपका बिहेवियर भी अच्छा है तो वो दी बेस्ट है और अगर अगर आप सुंदर होने के साथ दिल से अच्छे नहीं हैं तो सारी सुन्दरता बेकार हो जाती है. तो बाहरी सुन्दरता सबसे अहम् चीज़ है, आपने ख़ुद को कैरी कैसे किया है यह बहुत मायने रखता है. लव में मन की सुन्दरता बहुत बाद में आती है सबसे पहले तो बाहरी आवरण से ही प्यार होता है जो कि एक कम्युनिकेशन का नतीजा होता है. बिना कम्युनिकेशन के प्यार हो ही नहीं सकता. अब चूंकि प्यार और सेक्स एक दूसरे के कौनटेम्पोरैरी हैं तो इसमें भी सबसे पहले शारीरिक सुन्दरता ही आती है. कोई भी चाहे फीमेल हो या मेल अपना सेक्सुअल पार्टनर ख़ूबसूरत ही चाहता है. क्यूंकि खूबसूरती प्यार को मज़बूत  करती है और यही प्यार फ़िर सेक्सुअली बौन्डिंग पैदा करता है. अगर सेक्सुअली खूबसूरती भी है तो प्यार और मज़बूत होता है. और सायकोलौजी सब्जेक्ट भी यही कहती है कि बियुटी कम्ज़ फर्स्ट देन ब्रेन. इसीलिए मन की सुन्दरता जैसी बातें सिर्फ फॉल्स आदर्शों को जताने के लिए ही ठीक रहती है. एक बात खासकर सिर्फ महिलाओं के लिए जब भी कोई पुरुष मन की सुन्दरता की बात करे तो समझ जाएँ कि वो बहुत बड़ा वाला "वो" है. 
(वैसे डिस्क्लेमर नीचे लगा है)
तो मन की सुन्दरता जैसी कोई चीज़ है ही नहीं अगर है तो इसको नापने का कोई पैमाना ही नहीं है. अब सिर्फ बातों में ही कह सकते हैं. लेकिन लव हम दर्शा सकते हैं. और प्यार अगर है तो उसे दर्शाना बहुत ज़रूरी है लेकिन मन की सुन्दरता को कैसे दर्शायेंगें वो भी बिना कम्युनिकेशन के? जैसे हम मन ही मन हंसने को नहीं दर्शा सकते हैं वैसे ही मन की सुन्दरता को भी नहीं दर्शा सकते.   इसीलिए सबसे पहले प्यार आता है .. रिश्तों में प्यार का होना ज़रूरी है और जब प्यार होगा तभी ना आप मन की सुन्दरता देखोगे और जब प्यार बिलकुल भी नहीं होगा तो मन की सुन्दरता भी नहीं होगी. 



DISCLAIMER:
  • वेयूज़ टोटली  मेरे हैं।
  • फ़ोटोज़ का ब्लॉग पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है, आत्ममुग्धता भी ज़रूरी होती है। जब तक के हम खुद से प्यार नहीं करेंगे तो कोई हमसे प्यार नहीं करेगा। 

मंगलवार, 26 जून 2012

लखनऊ नवाबों से पहले -भाग 2 (आईये जाने एक इतिहास..लखनऊ जनपद के प्राचीन नगर और बस्तियाँ.....): महफूज़


लखनऊ के इतिहास के पिछले और पहले श्रृंखला में आपने लखनऊ का शुरूआती इतिहास जाना. अब इस श्रृंखला को आगे बढ़ाते हैं. लखनऊ के इतिहास की श्रृंखला देरी से आने का कारण समय की कमी है. कोशिश रहेगी कि टाइम टू टाइम यह सीरीज़ जारी रहे. हमारा लखनऊ बनारस के बाद दुनिया का सबसे नोन और पुराना शहर है. पूरे दुनिया में यही दो ऐसे शहर हैं जो दुनिया में सबसे पुराने हैं. 

लखनऊ जनपद के प्राचीन नगर और बस्तियाँ..... 

आज मैं लखनऊ जनपद की प्राचीन बस्तियों और स्थलों का विवरण प्रस्तुत करूँगा. इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनका वैज्ञानिक रीति से उत्खनन (excavation) किया गया है और कुछ ऐसे हैं जिनका परिचय सर्वेक्षण के दौरान मिली सामग्री से हुआ है. मैं पहले भी बता चुका हूँ कि यह वो इतिहास है जो किसी किताब और डिपार्टमेंट में नहीं मिलेगा और ना ही मेरा शोध है. यह जिनका शोध है मय सबूत उनका नाम मैंने पिछली पोस्ट में आभार के रूप में व्यक्त किया है. आईये आगे बढ़ें......

लखनऊ नगर में दो प्रमुख टीले हैं. एक नगर के उत्तर-पश्चिम दिशा में गोमती के तट पर स्थित लक्ष्मण टीला है और दूसरा टीला नगर के दक्षिण-पूर्व में स्थित बंगला बाज़ार के समीप क़िला मुहम्मदी नगर है जो कि  बिजली पासी के नाम से भी विख्यात है. दोनों पर प्राचीन बसती थी. प्रारम्भ में लक्ष्मण टीला विशाल क्षेत्र में फैला था. इसका ज़्यादातर भाग अब मेडिकल यूनिवर्सिटी के नीचे दबा हुआ है तथा इस टीले के एक भाग पर औरंगज़ेब के समय की बनी एक मस्जिद वर्तमान में है. इस टीले का पुरातात्विक उत्खनन नहीं हुआ है, इसलिए इसकी जानकारी के लिए हमें केवल इसके ऊपर या इसकी कटानों से मिलने वाली सामग्री पर निर्भर रहना पड़ता है. इस सामग्री से पता चलता है ली लक्ष्मण टीला भगवान् बुद्ध (ईसा से पूर्व छठी शताब्दी) के समय से भी प्राचीन है. अभी हाल ही में कई प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले  हैं जिनमें सबसे पुराने ईसा पूर्व एक हज़ार वर्ष के हैं. (और कोई न्यूज़ भी नहीं कहीं) इसमें राख के रंग का एक विशेष प्रकार का बर्तन भी है जिस पर सामान्यतः काले रंग से चित्र बने हैं जिसे पेंटेड ग्रे वेयेर कहा जाता है. टीले पर कई प्रकार के मनके, मिट्टी की मूर्तियाँ और खिलौने भी मिले हैं. अगर वैज्ञानिक ढंग से खुदाई की जाए तो वर्ष का सही पता चल सकता है. (बातचीत हमारी जारी है..आर्केओलौजी डिपार्टमेंट से)
(औरंगजेब की मस्जिद की पेंटिंग बाय हेनरी सौल्ट इन 1803)
(औरंगजेब की मस्जिद)

क़िला मुहम्मदी नगर (क़िला बिजली पासी) 240 मीo लम्बा और 170 मीo चौड़ा है जिसकी ऊंचाई 15 -20 मीटर रही होगी. इसे बिजली पासी का क़िला भी बताया जाता है. (आगे बिजली पासी के बारे में भी पता चलेगा). इस गढ़ी की चहारदीवारी में में लगभग २० बुर्ज बने थे. गढ़ी का निचला भाग मिट्टी का बना था जबकि इसके ऊपरी हिस्से में कंकड़ और ईंट का यूज़ हुआ है. आज भ ईसे देखने से ऐसा लगता है कि सुरक्षा के लिए चारों ओर खाई बनायीं गई थी जिसे पास के तालाब से भर लिया जाता था और वो तालाब आज भी है.  टीले से मिले मिट्टी के बर्तनों तथा मूर्तियों के आधार पर इस टीले का समय ईसा पूर्व 700 वर्ष तक रखा जा सकता है. ऐसा अनुमान है कि इस टीले पर बुद्ध के पहले से लेकर मुस्लिम काल तक यह बसती बनी रही. ऐसा लगता है कि लखनऊ नगर का प्राचीन इतिहास लक्ष्मण टीले तथा क़िला मुहम्मदी नगर का इतिहास है. और यह कैसा विचित्र संयोग है कि अगर एक टीला लक्ष्मण जी के नाम से  सम्बद्ध किया जाता है तो दूसरा टीला मुहम्मद साहब से. 
(प्राप्त सामग्री इन खुदाई)
यह तो रही लखनऊ के प्राचीन नगर की बात. अब हम यह देखेंगे और देखना चाहिए भी कि लखनऊ क्षेत्र में मनुष्य का निवास कब से आरम्भ हुआ और उस आरंभिक मनुष्य के बारे में हम क्या और कैसे जानते हैं? लखनऊ जनपद में ऐसे बहुत से स्थान हैं जहाँ तीन या चार हज़ार साल पहले मनुष्य निवास करने लगा था. पिछले दो वर्षों में लखनऊ जनपद के कई स्थानों का वैज्ञानिक उत्खनन किया गया है. सबसे पहले मैं अगले पोस्ट में उन स्थलों की चर्चा करूँगा जिनका उत्खनन किया गया है और फ़िर बाक़ी प्राचीन स्थानों कीक्रमशः (To be contd.....)

आभार: 
  • हिंदी वाड्मय निधि लखनऊ 
  • डॉ. एस. बी. सिंह 
  • स्वयं 
  • मैं अपनी स्टेनो कम टाइपिस्ट रीना का भी शुक्रगुज़ार हूँ.. जिसे मुझे कुछ भी समझाना नहीं पड़ा... शी इज़ वैरी इंटेलिजेंट.. इस बार रीना के बीमार होने की वजह से टाइपिंग में देरी हुई।
  • ऋचा द्विवेदी 

रविवार, 17 जून 2012

कुछ लोग पानी पर कील ठोक कर उसे रस्सों से बाँध देते हैं: महफूज़

आज कोई भूमिका या यहाँ वहां की बातें (बेकार की) लिखने का मन नहीं है. और इतिहास सीरीज भी टाईप  नहीं हुई है, रीना छुट्टी पर है और अपने पास टाइम नहीं है टाईप करने का। आज देखिये सीधे मेरी एक कविता। बहुत पहले लिखी थी और पोस्ट अब कर रहा हूँ। आज कोई फ़ोटो(ज़) भी नहीं है, कंप्यूटर की हार्ड डिस्क क्रैश हो गयी है। वैसे सन्डे का दिन  बहुत  बोरिंग होता हैखुशदीप भैया की तबियत भी ठीक नहीं है... सब लोग दुआ करिए की भैया जल्दी ठीक हो जाएँ। 



मुश्किल नहीं है पानी को बांधना 

पानी खतरे के निशान को पार 
कर गया है,
इसमें सब कुछ डूब 
गया है 
कुछ लोग पानी पर 
कीलें ठोक रहें हैं 
और कुछ 
पानी को रस्सों से बाँध 
रहे हैं 
यह वो लोग हैं 
जिन्होनें हमेशा 
पानी और ज़मीन को 
जूतों से छुआ है 
इनके तलवे ज़मीन और पानी 
की ज़ात से परिचित नहीं हैं ,
हर अपरिचित पानी को 
रस्सों से बांधता 
और फिर उसके जिस्म पर 
कीलें ठोकता है।

(c) महफूज़ अली 

गुरुवार, 14 जून 2012

लखनऊ नवाबों से पहले -भाग 1 (आईये जाने एक इतिहास): महफूज़

आज से मैं लखनऊ का अनदेखा और अनजाना इतिहास पेश कर रहा हूँ. यह इतिहास मैंने नहीं लिखा है और ना ही मेरा इसे लिखने में कोई ऐसा योगदान है. यह वो इतिहास है जिसे हम जानते तो हैं लेकिन सिर्फ नाम से. लखनऊ वो शहर है जो पूरी दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अपनी तहज़ीब और बाग़ों के लिए जाना जाता है. लेकिन किसी को भी यह नहीं पता है कि लखनऊ कैसे और कब तहज़ीब और बाग़ों का शहर बना? ऐतिहासिक तौर पर भी लखनऊ के बहुत मायने  हैं मगर वो इतिहास लखनऊ के वासी और देश के लोग नहीं जानते हैं. तो उसी इतिहास को सामने लाना ही मेरा उद्देश्य है. शुरुआत तो लखनऊ के इतिहास से कर रहा हूँ मगर वो देश का इतिहास भी होगा और विवादित भी हो सकता है. जो भी इतिहास मैं बताऊंगा वो पूरी तरह से तथ्यों (फैक्ट्स) पर आधारित हैं और मेरे द्वारा भी रिसर्च किये हुए हैं. हर लिखे हुए का सबूत मेरे पास है. अगर किसी को मेरे इतिहास लेखन पर आपत्ति होगी तो उसका कोई मतलब नहीं होगा. नॉलेज गेन करना हमारा शौक़ होना चाहिए. (मेरी कोशिश यह रहेगी कि मैं हिंदी का प्रयोग करूँ और सरल भाषा में अनदेखा अंजाना सा इतिहास आपके सामने रखूं). प्रस्तुत इतिहास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व एच.ओ.डी. श्री. शिव बहादुर सिंह ने अपने शोध से लिखा है और उसे लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास डिपार्टमेंट के पूर्व प्रोफ़ेसर श्री. डी.पी. तिवारी जी ने अनुमोदित किया है. इतिहास लिखने के लिए मैं हिंदी वाड्मय निधि खुर्शीदाबाद, लखनऊ का भी आभारी हूँ.

आजकल हमारे नगरों में बड़ी तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं. एक ओर नगर के पुराने निवासी अपनी विरासत से कटते जा रहे हैं तो दूसरी ओर बाहर से से आकर नगरों में बसने वाले उसके बारे में कुछ नहीं जानते. इसका नतीजा यह होता है कि हम ना तो अपने नगर जनपद से नाता जोड़ पाते हैं और ना ही गौरव का भाव ला पाते हैं. प्रेम और गौरव बोध के बिना हम अपने नगर जनपद को धर्मशाला या होटल से ज़्यादा भला क्या समझेंगे? और तब उसके विकास की फिकर क्यूँ करेंगे? अपने नगर से हमारा भावनात्मक सम्बन्ध होना ही चाहिए. पर यह तभी होगा जब हम उसके इतिहास को जानें, सांस्कृतिक विरासत से परिचित हों, विभिन्न वर्गों-साम्प्रदायों के नगर जनपद को योगदान का आंकलन करें. नगर जनपद से भावनात्मक प्यार वाह धागा है जो उसके सभी लोगों को बिना भेदभाव के जोड़ता है. अपने लखनऊ का परिचय देने के लिए हिंदी वाड्मय निधि के सहयोग से यह श्रृंखला ब्लॉग के माध्यम से लाने का मैंने प्रोमिस (निश्चय) किया है. मैं अपने हिंदी के गुरु श्री. उपाध्याय जी (मामा जी) का भी आभारी हूँ जो हिंदी लिखने, बोलने और प्रोंन्सियेशन में मेरी पूरी मदद कर रहे हैं. आईये आज थोडा सा लखनऊ के बारे में जानें और पूरी श्रृंखला से लखनऊ के इतिहास को एक अलग नज़रिए से समझें. 
(यह रामायण अरबी और फ़ारसी में लिखी गयी है और सिर्फ लखनऊ में है)

यह सच है कि लखनऊ दुनिया में प्रसिद्ध तब हुआ जब वह अवध के नवाबों की राजधानी बना (1775 -1856) लेकिन उससे बहुत पहले लखनऊ शहर और ज़िला आबाद हो चुका था. अब तक की खोज और खुदाई से इस जनपद में मनुष्यों की बसती का प्रमाण लगभग चार हज़ार साल पहले मिलने लगता है. लखनऊ को सबसे पहले आबाद करने वालों के सम्बन्ध में अब तक के कहाँ और क्या प्रमाण मिले हैं, कैसे उनका जीवन बदला? फ़िर कैसे लखनऊ नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ने लगा जो नवाबों के समय शिखर पर पहुंचा. ऐसे ही कुछ लखनऊ के लम्बे इतिहास की कहानी  मैं सामान्य भाषा में सामान्य पाठक के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. 

लखनऊ के विषय में लम्बे समय से यह समझा जाता रहा है कि इसका नामकरण अवध नरेश श्री. राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर हुआ था. यह एक रोचक तथ्य है कि इस मान्यता की पुष्टि आदि काव्य वाल्मीकि रामायण से होती है. रामायण के उत्तरकाण्ड में लोकापवाद से बचने के लिए राम द्वारा सीता के परित्याग का उल्लेख है. अयोध्या से सीता को गंगा के किनारे स्थित वाल्मीकि आश्रम में छोड़ने का दायित्व लक्ष्मण को सौंपा गया था, जिन्होंने सुबह रथ से यात्रा शरू कर गोमती तट पर स्थित एक आश्रम में रात को आराम किया था-- ततो वास्मुपगम्य गोमतीतीर आश्रमे (वा.रा.7/46-19). दूसरे दिन दोबारा सुबह अपनी यात्रा शुरू कर के दोपहर में वे गंगा तट पर पहुंचे फ़िर नाव से गंगा को पार कर सरिता तट पर स्थित ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में सीता को छोड़ दिया--

राज्ञो दशरथस्यैव पितुर्मे मुनिपुंगवः !! सखा परमको विप्रो वाल्मीकिः सुमुहायशः! 
पाद्च्छयामुपागम्य सुखम्स्य महात्मनः! उपवासपरैकाग्रा वस त्वं जनकात्मजे!! (वा.रा. 7/47/16-17)

अब सवाल यह उठता है कि वह कौन सा स्थल हो सकता है जहाँ लक्ष्मण ने रात्री वास किया था और जहाँ से सुबह चलकर दोपहर गंगा तट पर पहुँच गए? वर्तमान लखनऊ शहर में गोमती किनारे स्थित लक्ष्मण टीला ही इस लिहाज़ से सबसे उपयुक्त दिखाई देता है. और यही टीला आज भी लक्ष्मण टीला के नाम से ही प्रसिद्ध है. यहीं रात्री विश्राम के बाद लक्षमण गंगा पार कर बिठुर स्थित वाल्मीकि आश्रम पहुंचे होंगे. कई कारणों से इस स्थल की खुदाई नहीं हो सकी है नहीं तो इतिहास की और भी परतें खुलतीं. यह भी कहा जाता है कि युधिष्ठिर के प्रपौत्र जनमेजय ने यह क्षेत्र तपस्वियों को दान कर दिया था. 

इसके विपरीत लखनऊ गैज़ेटियर के अनुसार "लिखना" नाम के शिल्पी ने शेखों के शासनकाल में एक क़िला बनवाया जिसका नामकरण उसी के नाम पर लिखना क़िला पड़ा. आगे चल कर ऐसा कहा जाता है कि उसी के नम पर लखनऊ नगर का नाम पड़ा. अब यह भी विचारणीय है कि किसी क़िले का नाम शिल्पी के नाम पर रखना अस्वाभाविक है. यह भी सोचने वाली बात है कि शेख शासकों ने भला अपने क़िले का नाम अपने शिल्पी के नाम पर क्यूँ रखा होगा? इसके अलावा अवधी भाषा में "लिखना" किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता. वस्तुतः यह नाम 'लखना' हो सकता है जो लक्ष्मण नाम का ही अवधी अपभ्रंश है. संभवतः स्थानीय अवधी भाषा में लखना नाम बोलचाल की भाषा में लखनू, लखनुवा, लखनवा, और अंत में लखनऊ हो गया. अँगरेज़ जिसे प्रोनाउन्स नहीं कर पाते थे तो लैकनेओ बुलाते थे जिसकी वर्तनी (स्पेलिंग) अंग्रेज़ी में LUCKNOW लिखते थे और आज भी यही लिखी जाती है. क्रमशः ..... To be contd..... 

आभार: 
  • हिंदी वाड्मय निधि लखनऊ 
  • डॉ. एस. बी. सिंह 
  • स्वयं 
  • मैं अपनी स्टेनो कम टाइपिस्ट रीना का भी शुक्रगुज़ार हूँ.. जिसे मुझे कुछ भी समझाना नहीं पड़ा... शी इज़ वैरी इंटेलिजेंट..
  • ऋचा द्विवेदी 

मंगलवार, 12 जून 2012

डॉ. की दुविधा, टूटते सिलसिले बिन छाया के रह जायेंगे और चाय का कप: महफूज़


मैं थोडा आजकल परेशान चल रहा हूँ. मेरी परेशानी यह है कि मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं अपने नाम के साथ डॉ. लगाऊं या नहीं? आख़िर पी.एच.डी. किये हुए आठ साल हो गए हैं. और ऑफिशियली डॉ. लगाना पड़ता है. अगर डॉ. लगाता हूँ तो मेरा बचपना ख़त्म हो जायेगा जो कि मैं चाहता नहीं हूँ. मुझे बहुत सीरियस रहना पड़ेगा जैसा की मुझे अपनी नोर्मल लाइफ में रहना पड़ता है.  अगर मैं डॉ. लगाता हूँ तो अपनी उम्र से और बड़ा दिखूंगा. फ़िर एक तो मैं वैसे भी बहुत ऐटीट्युड वाला इन्सान हूँ और पब्लिकली लोग मुझे घमंडी भी कहते हैं. डॉ. लगा लूँगा तो पब्लिकली  ऐटीट्युड नहीं दिखा पाउँगा. हालांकि! मार पिटाई.....गरियाना तो मेरे लिए अलग बात है.... यह सब तो आत्म सम्मान के लिए करना पड़ता है. लेकिन अब सोच रहा हूँ कि सोशल साइट्स पर भी डॉ. लगा ही लूं. पर एक चीज़ और है जिससे मैं घबराता हूँ कि डॉ. देख कर महिलाएं थोडा दूर हो जातीं हैं.  और मैं महिला मित्रों को खोना नहीं चाहता. मेरा सीरियस  ऐटीट्युड देख आकर सब वैसे ही भाग जायेंगीं.. 
(गोरखपुर स्थित मेरे घर का अगवाडा, इस भीषण गर्मी में भी पौधों को जिंदा रखना बड़ी बात है )
और फ़िर डॉ. लग जाने से संजीदगी का शो ऑफ करना पड़ेगा. और शो ऑफ मैं सिर्फ बौडी बिल्डिंग का ही करता हूँ. डॉ. लग जाने से यह सब बंद हो जायेगा. पी.एच.डी. के अपने फायदे भी हैं तो नुक्सान भी हैं. वैसे एक चीज़ बता दूं पी.एच.डी. सिर्फ और सिर्फ़ नालायक लोग करते हैं. जिनके पास सब्जेक्ट नॉलेज नहीं होती. हाँ! हम जैसे यू.जी.सी. वाले जो जे.आर.एफ. लेकर पी.एच.डी. करते हैं और दो चार बार सिविल से बाहर हो जाते हैं और फ़िर पूरी ज़िन्दगी  सुपिरियौरीटी कॉम्प्लेक्स में जीते हैं...  वो नालायकों की कैटेगरी में नहीं आते. (कहीं ना कहीं मेरा ऐटीट्युड दिख ही जाता है.... हा हा )
(गोरखपुर स्थित मेरे घर का पिछवाडा)
अब बता दूं अगली पोस्ट से मैं डॉ. लगाता हुआ ही दिखाई दूंगा... मेरा एक नुक्सान होगा कि मैं  फ़िर ताने नहीं मार पाऊंगा... लोगों की  धो नहीं  पाउँगा.. लेकिन अब लगाना तो पड़ेगा ही डॉ. .. आख़िर एक पहचान तो यह है ही.. 
(यह मैं सुबह के वक़्त)

आईये अब ज़रा मेरी एक कविता देखी जाए: 

सिलसिले टूट रहे हैं 

सुबह हो रही है 
मगर परछाइयों के सिलसिले 
टूट रहे हैं 
और हमारे बीच से
अब 
धूप का अंतराल ख़त्म हो गया है 
अब 
जवान होती दोपहर में भी 
हम बिन छाया के रह जायेंगे. 

(c) महफूज़ अली  

अब अगली बार से  मेरी खोजपरक और हिसटौरीकल सीरीज शुरू होंगीं. उन सीरीज में मेरा कोई ख़ास योगदान नहीं है. मेरा सिर्फ इतना कंट्रीब्युशन है कि मैं वो ईतिहास फैक्ट्स के साथ देश और समाज के सामने रखूँगा जो अब तक के गुमनाम है और आमजन को पता नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि पता नहीं है.. पता है ..लेकिन आम जन के सामने नहीं है और स्कूल कॉलेज के राजनितिक इतिहास से अलग है। वैसे भी बेकार लोगों के चक्कर में बकवास चीज़ें लिखते लिखते अब मेरा मन ऊब गया है।

सोमवार, 11 जून 2012

खुशदीप भैया... गेट वेल सून (Get Well Soon) : महफूज़

पिछले चार पांच दिनों से मन बहुत  अजीब हो रहा था. सब कुछ अच्छा होते हुए भी अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो आजकल ज़्यादातर वक़्त गोरखपुर में बीतता है दूसरा गोरखपुर में इन्टरनेट कनेक्शन नहीं रहता है. और फिर बिज़ी इतना कि मोबाइल फोन तक का ध्यान नहीं रहता है (बीते हुए वक़्त को दोबारा पाना बहुत मुश्किल होता है). पिछले दो तीन दिन से मन यूँ ही बहुत खराब हो रहा था. 
मैं बिला वजह परेशान था और उन परेशानियों का कारण भी खोज रहा था. लेकिन उन कारणों का पता नहीं चल पा रहा था. लखनऊ लौटा तो थोडा फ्री हुआ तो अपने चंद मित्रों को कॉल किया और पाबला जी से हमेशा की तरह गुफ्तगू हुई. उसके बाद भी अजीब सा खालीपन लग रहा था. तभी ध्यान आया कि खुशदीप भैया से बात नहीं हुई काफी दिनों से. उन्हें कॉल लगाया तो काफी देर तक घंटी गयी लेकिन फोन नहीं उठा. इससे पहले कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि मेरा फोन नहीं उठा हो चाहे वो रात के तीन बजे ही क्यूँ न हो? 

मैंने फिर कॉल मिलाया तो काफी देर घंटी जाने के बाद फोन उठा तो पता चला कि खुशदीप भैया की भतीजी ने फोन उठाया है और मुझे बताया गया कि भैया हॉस्पिटल में एडमिट हैं और अभी अभी उन्हें नींद का इंजेक्शन दिया गया है. और चाची जी (भाभी जी) दवा लेने ज़रा बाहर की ओर गयीं हैं. मुझे पता चल गया कि मेरा मन इतने दिनों से अशांत क्यूँ था? यह मेरी भैया से बोन्डिंग ही थी जो मुझे बता रही थी. 

इसके बाद मुझे भैया से बात करने की बेचैनी होने लगी. लेकिन मैं उनके जागने का इंतज़ार ही कर सकता था. फिर एक इंटयुशन यह भी देखिये कि जैसे ही भैया तीन घन्टे बाद जगे तो मुझे अपने आप पता चल गया और मेरी बात भैया से हो गयी. हालचाल लेने के बाद अब जाकर चैन मिला है. ऐसा लग रहा है कि जैसे खोई हुई चाभी मिल गयी हो. भैया मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ. आप ही तो हो जो मेरे साथ हर तरह से होते हो. अच्छे में भी और बुरे में भी. आप मेरे लिए भाई से बढ़ कर हो. एक आप ही तो हो जिसके दम पर मैं थोडा यहाँ उछल भी लेता हूँ. आप जल्दी से ठीक हों यही मेरी ईश्वर से कामना है और फिर से पहले की तरह सबको हंसाएं. खुशदीप भैया  आई लव यू... 

बुधवार, 6 जून 2012

वक़्त बहुत कीमती है, मासिक धर्म और कुछ हमारी मजबूरी: महफूज़

ब्लॉग लिखने के लिए अलग से टाइम निकालना पड़ता है. मैं रोज़ सोचता हूँ कि कुछ ना कुछ लिखूंगा लेकिन टाइम नहीं मिल पाता है. जब हमें वक़्त का नुक्सान बिना किसी मतलब में हो जाता है तो  उस बीते हुए पल की भरपाई बहुत मुश्किल से हो पाती है. और खासकर तब जब आप स्वाभिमान और अभिमान की वजह से वक़्त को खोते हैं तो यही दोनों मान फ़िर से आपका खोया हुआ वक़्त आपको वापस दिलाने में आपकी मदद करते हैं और फ़िर उसके लिए जद्दोजहद की जंग सामाजिक तौर पर शुरू हो जाती है. जब हमारा वक़्त ख़राब होता है ना तो हमें ऐसे लोग भी मिलते हैं जो हमारा वक़्त बिना मतलब में ज़ाया कराते हैं. तो ऐसे वक़्त में अच्छा बुरा पहचानने की ताक़त भी कम हो जाती है. 
और ऐसे ही बुरे वक़्त में हम लोगों को सामजिक तौर भी नहीं पहचान पाते हैं. वक़्त ही एक ऐसी चीज़ है जो आप जितना चाहें उतना खो सकते हैं... और खोने के बाद कुछ पा नहीं सकते हैं. वक़्त को वेस्ट करने का सबका अपना अपना तरीका होता है और ज़्यादातर लोग अन्प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. कुछ लोग ब्लॉग लिखते हैं तो इतना लिखते हैं कि लोग सोचने लगते हैं कि यह आदमी काम क्या करता होगा? कुछ लोग फेसबुक पर बैठते हैं तो इतना बैठेंगे कि सामने वाला सोचेगा कि यह कोई धन्ना सेठ है. 
कुछ लोग यहाँ वहां की यूँ ही गप्पें लड़ायेंगे या बिना मतलब की बहस में उलझेंगे और तो और कुछ लोग सिर्फ बातों ही बातों में देश की इकोनोमी और सिस्टम सुधार देते हैं. तो कुछ लोग प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. इनके  अन्प्रोडकटिव काम भी प्रोडक्टिव होते हैं. मुझे ऐसा लगता है कि अगर पुरुष है तो उसे सिर्फ प्रोडक्टिव काम ही करने चाहिए और ऐसे काम करने चाहिए जो दिखाई दे और साक्षात नज़र आये. पुरुषों का बिना मतलब में वक़्त को बेकार करना बेमाने है. 
पुरुष ऐसा ही अच्छा लगता है जो हर तरह से सम्पूर्ण हो मौरली, सोशली और फ़ाइनैन्शियलि. बिना कार, फौरेन ट्रिप्स, लेटेस्ट इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स, सेक्सुअलटी, फिज़िकल फिटनेस,यंगनेस, वेल-ग्रूम्नेस, ढेर सारी गर्ल फ्रेंड्स (अगर शादी-शुदा नहीं है तो) और अच्छे बैंक बैलेंस के बिना पुरुष अजीब लगता है जैसे चिड़ियाघर का ओरंगउटान. और यह सब पाने के लिए के लिए वक़्त को पकड़ना पड़ता है. 

महिलायें भी ऐसे ही पुरुषों को ज़्यादा पसंद करतीं हैं जो वक़्त के हिसाब से सक्सेसफुल हो. इसीलिए वक़्त की बड़ी शौर्टेज रहती है. मैं हर काम प्रोडकटिवली ही करना चाहता हूँ. मेरे लिए ब्लॉग लिखना तब प्रोडक्टिव होगा जब मेरी ऊपर लिखी हुई सारी नीड पूरी हो रही होंगीं. 

अब मैं पहले की तरह पढ़ता बहुत हूँ. पढने से क्या होता है कि दिमाग़ तो खुलता ही है और साथ ही में नये नये आईडियाज़ भी आते हैं. जैसे हमारे शरीर को खुराक की ज़रूरत होती है वैसे ही हमारे दिमाग को भी खुराक की ज़रूरत होती है और वो खुराक दिमाग़ को सिर्फ पढने से ही मिलती है,  खासकर रिलीजियस टेक्स्ट्स. हम जब भी रिलीजियस टेक्स्ट पढेंगे चाहे वो किसी भी धर्म के क्यूँ ना हों, सबको पढ़ने के बाद यही लगेगा की यह तो सब एक ही बात कह रहे हैं. मैं बहुत जल्दी ही लखनऊ, कानपुर और गोरखपुर का ऐसा इतिहास बताने जा रहा हूँ जिसे अब तक के लिखा ही नहीं गया है और जिन्होंने लिखा है उन्हें कोई पहचानता ही नहीं तो वो इतिहास को लिखना एक तरह से उन गुमनाम लोगों को सामने लाना होगा जो अब तक पौलिटीक्ली डिबार्ड हैं. सब रिसर्च बेस्ड है. अब से मेरी पोस्ट्स सब हिस्टौरीकल डिसगाईज़ड फैक्ट्स पर कुछ दिन चलेंगीं. बीच बीच में कवितायें और बेमतलब की चीज़ें भी आतीं रहेंगीं. 
(मैं अपने जिम ट्रेनर के साथ, नोट:फ़ोटोज़ का पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है)
अच्छा! फेसबुक की सबसे बड़ी ख़ास बात क्या है कि कहीं से भी ओपरेट किया जा सकता है. कार से, मोबाइल से और वाय-फाय से भी. यह हर जगह मिल जाता है. ब्लॉग के साथ ऐसा नहीं है. और फेसबुक को कोई सीरियसली लेता भी नहीं है. फेसबुक में पोस्ट की लाइफ सिर्फ चंद मिनट की ही होतीं हैं. मुझे फेसबुक में ताना मारना बहुत अच्छा लगता है. और मेरे तानों से जब कईओं की सुलगती है तो मेरे मेसेज बॉक्स में गालियाँ लिख कर भेजते हैं फ़िर भी मैं किसी को अन्फ्रेंद नहीं करता. हाँ! मुझे काफी लोग कर देते हैं. पता नहीं क्यूँ लोग मेरे तानों को अपने ऊपर ले लेते हैं जबकि मैं युनिवर्सली ताने देता हूँ. आईये मेरे कुछ बीते दिनों के फेसबुक स्टेटस देखे जाएँ.
  • कई बार हम कुछ ऐसी महिलाओं से मिलते हैं जो हमें दिमागी और शारीरिक रूप में बहुत अच्छी लगतीं हैं.. तो मन में यही ख़याल आता है कि काश! हम इनके वक़्त पर पैदा हुए होते.. या यह हमारे वक़्त पर.. बहुत ज्यादा एज डिफ़रेंस मैटर नहीं करता...दस साल तक चलता है.. शायद यह सही कहा गया है... बट लव हैज़ नो बाउंड्रीज़. (but love has no boundaries) 
  • हिंदी की किताबें कोई www.flipkart.com से खरीदता ही नहीं है.. खरीदेगा भी क्यूँ.. सारे ब्लौगर्ज़ ही तो हैं ... कौन से साहित्यकार हैं.. ब्लागरों में एक ख़ास बात है.. सारे अपने आपको इंटेलेक्चुयल समझते हैं.. और रिकौग्नाइज़ कोई नहीं करता इन्हें.. खुद ही पैसे देते हैं खुद ही छपवाते हैं.. और ख़ुद को ही एक दूसरे से सम्मानित करवाते हैं.. तू मेरी धो मैं तेरी धो दूंगा.. या तू मेरी खुजा मैं तेरी.. और फिर चाहते हैं कोई ज्ञानपीठ दे दे...ज्ञानपीठ का मिनिमम रेट दस लाख रुपये.. जिसे चाहिए वो मुझसे संपर्क करे. 

    (भई! पुरुस्कार ऐसे होने चाहिए जो मान्यता प्राप्त हों.. और हर पुरुस्कार बिकता है ... जिसका मिनिमम रेट तो दस लाख है .. और बाकी जो जितने ज्यादा दे दे.. जो ज्यादा देगा उसे पुरुस्कार मिला जायेगा)

  • पता नहीं क्यूँ अधेड़ सम्पादक, ब्लॉग और फेसबुकिये पुरुष सिर्फ महिलाओं को ही क्यूँ कवितायेँ छापने के लिए कॉन्टेक्ट करते हैं? मुझे हमेशा कोई न कोई महिला बताती रहती है कि फलाने ने कविता भेजने के लिए फोन किया या SMS किया.. या फिर मेल किया.... शायद ही कभी किसी पुरुष ने मुझे बताया हो कि फलाने ने कविता मांगी है छापने के लिए.. कई संपादकों को तो मुझे हड़काना पडा.
  • कितना अजीब लगता है कि जब किसी मॉल में आपकी कोई पुरानी गर्ल फ्रेंड अपने पति के साथ टकरा जाये और अपने पति से इंट्रो कराते हुए कहे: " मीट माय क्लास मेट..फलां ..फलां..ही वॉज़ वैरी बदमाश ड्यूरिंग दैट डेज़.." और उसी मॉल के गेम सेक्शन में बदमाशी करते हुए आपकी वही गर्ल फ्रेंड अपने बच्चों को जोर से आवाज़ देकर बुलाये और कहे "आओ..बेटा देखो तुम्हारे मामा ... मामा से मिल लो.. ... और बच्चे आँखें फाड़े देखते हैं कि यह उनका कौन सा मामा है? आप प्रोफेशनली मुस्कुरा रहे होते हो.. और पुराने दिनों को फ्लैशबैक की तरह उसी वक़्त याद कर रहे होते हो.. 
  • साहित्यिक, ब्लॉग और फेसबुक जगत अब खुश हो जाएँ... आज से गुंडा गर्दी (कंडीशन्स ऐप्लाय) ... ताने देना...तंज मारना.. सब बंद.. अब तो कई सारे साहित्यिक मैगज़ीन्स ने भी रजिस्टर्ड पोस्ट से लैटर लिख कर हाथ जोड़ कर मना किया है.
ऐसे और भी बहुत से हैं. जो ख्याल आता रहता है तो मोबाइल/कंप्यूटर से स्टेटस डाल देता हूँ. 
(मैं अपने गोरखपुर स्थित गौशाला और भैंस शाला में)
(गोरखपुर स्थित मेरा फार्म हाउज़ )
(यह मेरे खेत में एक कौवा जिसकी चोंच टूटी हुई है)
मैंने एक कविता लिखी है. कविताओं का भी अजीब हाल होता है कोई पढ़ता ही नहीं है फ़िर भी हम लिखते हैं. मुझे अब कई सारे कवि जिन्हें हमने स्कूल में में पढ़ा आज मुझे वो नालायक लगते हैं. सब सरकारों के तलवे चाट कर अपनी अपनी कवितायें स्कूलों में लगवा दिए और हमें उन लोगों को ज़बरदस्ती पढना पढ़ा. बचपना भी बड़ा अजीब होता है ... हम विरोध करने लायक नहीं होते और अगर विरोध करते तो बच्चा कह कर चुप करा दिए जाते.. और जब बड़े हो जाते तो सिस्टम के आगे मजबूर रहते. आईये कविता देखते हैं..

हमारी मजबूरी 
क्या आपको ऐसा नहीं लगता
कि हमारी स्वतंत्रता 
उस 
मासिक धर्म की तरह है
जिसमें 
हम बूँद बूँद खून लिए 
झरते जाते हैं 
मगर 
ख़ुद के आगे भी 
दाग़ भरे कपडे ना उठा पाना
हमारी मजबूरी है. 
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अब मेरा फेवरिट गाना :
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