(फोटो हैज़ नथिंग टू डू विद द पोस्ट)
एक कविता -----पिछला हफ्ता मैंने नाखूनों की तरह
काटकर कचरे के ढेर में फ़ेंक दिया है।
मगर दिन में भी नाखूनों की तरह
रिजैनेरेटिव पावर होता है
पुनः दिन
उँगलियों में
नाखूनों की तरह
उगने लगा है।
नाखून की मीनारों में
मैल भरने लगा है ...
धीरे धीरे शाम ढल रही है
नाखून पूरा काला हो जायेगा
और रात हो जाएगी।
जब यह रात असहनीय हो जाती है
तो हम इसे नेलकटर से काट कर
कूड़े के ढेर फ़ेंक आते हैं ...
और पुनः दिन नाखूनों में बढ़ने लगता है।
नाखून और दिन में फर्क इतना ही है
कि आदमी की मौत के साथ
नाखूनों में रिजैनेरेटिव पावर
समाप्त हो जाती है
जबकि मरे हुए नाखून में भी
दिन ... उन्ही पुराने दिनों की तरह
डराता है।
मगर अब,
उसे कोई मारकर फेंकने वाला नहीं रहता
यानि कि
दिन नाखून बदल देता है
उसमें पुनः डराने की शक्ति
समाप्त नहीं होती
याने दिन मरता है और उगता चला जाता है,
जबकि आदमी का नाखून
मौत स्वीकार कर लेता है
और
उसका उगना
बंद हो जाता है।
(c) महफूज़ अली