रविवार, 30 अगस्त 2009

दिन भी हो चला धुंधला, दिए की लौ भी बुझने को आई....


किसी कि आहट मुझे सोने नही देतीं,

दिल कि धडकनों में यह हलचल है किसकी?

जो मुझे पलकें भी मूँदने नहीं देतीं।

ज़ुल्मत में यादों कि परछाई किसकी है मुस्कुराई,

रौशनी सी बिखेरती मुझे अंधेरे में खोने नहीं देतीं।

यह मुश्कबू फैली है किसके छुअन की,

कि रात के डगमगाते साए भी सोने नहीं देते।

दिन भी हो चला धुंधला,

दिए की लौ भी बुझने को आई,

पर घटाएं बनी रातें सुबह होने नहीं देतीं।

ज़िन्दगी का फलसफ़ा भी है अजीब,

पुरानी यादें रोने भी नहीं देतीं॥
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