शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

...मत बनाना मेरा बुत, मेरी मौत के बाद....




मैं हमेशा चलना चाहता हूँ, 


बोलना  चाहता हूँ, 


सुनना  चाहता हूँ,


मत बनाना मेरा बुत,


मेरी मौत के बाद,


क्यूंकि


मैं नहीं चाहता बहरा , 


गूंगा और निश्चल होना.........











महफूज़ अली

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

मुझे हर पल ज़रुरत है तुम्हारी, मत छोड़ो साथ मेरा कि आँसू भी साथ न निभा पायें .....



अहसास साथ हैं,
हर पल
हर वक्त
पर ऐसा लगता है
की
खोया हुआ सा है कुछ।
नही हो तुम मेरी कल्पना
हो तुम मेरा यथार्थ
ख़ुद राह मैं तलाशूंगा
जब तुम दोगी
मेरा साथ।
मुझे हर पल ज़रुरत है तुम्हारी,
जलते रहने के लिए,
धड़कते रहने के लिए,
मत आओ एक हवा के झोंके की तरह
मेरी ज़िन्दगी में ,
जो बुझा जाये मेरी लौ को।
मत छोडो अकेला मुझे,
एक ऐसे मोड़ पे ,
जहाँ वक़्त भी मेरा साथ न दे पाए ,
मुस्कान भी रूठ जाए ,
और ........................
आंसू भी साथ न निभा पाए ।।

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

वादा करो छोडोगी नहीं तुम मेरा साथ.....



तन्हाई में जब मैं
अकेला होता हूँ,
तुम पास आकर दबे पाँव
चूम कर मेरे गालों को,
मुझे चौंका देती हो,
मैं ठगा सा,
तुम्हें निहारता हूँ,
तुम्हारी बाहों में, 
मदहोश हो कर खो जाता हूँ.
सोच रहा हूँ.....
कि अब की बार तुम आओगी,
तो नापूंगा तुम्हारे
प्यार की गहराई को....
आखिर कहाँ खो जाता है
मेरा सारा दुःख और गुस्सा ?
पाकर साथ तुम्हारा,
भूल जाता हूँ मैं अपना सारा दर्द
देख कर तुम्हारी मुस्कान और बदमाशियां....
मैं जी उठता हूँ,
जब तुम,
लेकर मेरा हाथ अपने हाथों में,
कहती हो.......
मेरे बहुत करीब आकर
कि रहेंगे हम 
साथ हरदम...हमेशा....

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

आइये जानें क्यों यूरोपीय व कुछ एशियाई देश शून्य (ज़ीरो) को 'ओ' (O) बोलतें हैं?


काफी लोगों को मालूम है कि पूरा यूरोप और एशिया के कुछ देश (जिसमें भारत यानि  कि That is India भी) ज़ीरो यानि कि शून्य को ज़ीरो यानि कि शून्य नहीं बोलतें हैं. अंग्रेज़ी का 'O' (ओ) अक्षर बोलतें हैं. अब सौ कि वर्तनी अंग्रेज़ी में बोलनी है तो वो वन ओ ओ बोला जाएगा, वन ज़ीरो(शून्य) ज़ीरो(शून्य) नहीं. यह हम में से सबने देखा भी है और सुना भी है. पर यह यूरोप और कुछ एशिया के देशों में ही प्रचलित है.   अब तो कुछ तथाकथित खुद को नस्ल से भारतीय कहने वाले भी शून्य (ज़ीरो) को 'ओ' ही बोलते हैं, और 'ओ' बोलने में फख़्र महसूस करते हैं. आखिर ऐसा क्या और क्यूँ है जो यूरोपीय और कुछ एशिया के देश ज़ीरो यानि कि शून्य को अंग्रेज़ी का 'ओ '(O) बोलते हैं? आइये यह जानने से पहले शून्य (ZERO) का इतिहास जान लें?

शून्य (ज़ीरो) का इतिहास:---

इसमें कोई शक नहीं कि शून्य (ज़ीरो) के आविष्कार का श्रेय भारत को जाता है. इसको शुरू से डॉट (.) के रूप में लिखा जाता रहा है या फिर गोलाकार रूप में लिखा जाता है. इसको डॉट (.) या गोलाकार रूप में इसलिए लिखा जाता है/था क्यूंकि गोलाकार का मतलब "घूम फिर के वही" होता है यानि कि कुछ नहीं. संस्कृत में भी शून्य का मतलब कुछ नहीं होता है. और यह गोलाकार रूप में लिखना भी संस्कृत से ही निकला है..

इतिहासकार मानते हैं कि सन 458 A.D. से शून्य (ज़ीरो) अस्तित्व में आया. परन्तु इसपर काफी मतभेद है. पुरातन काल में अंकों को प्राकृतिक चीज़ों को आधार बना कर लिखा जाता था. उदाहरण के तौर पर: अगर १ लिखना है तो चाँद या सूरज बना कर लिख दिया जाता था, २ लिखना है तो दो आँखें बना कर लिख दिया जाता था. इसी तरह दशमलव प्रणाली के तहत शून्य को डॉट (.) या फिर गोलाकार रूप में लिख दिया जाता था. यह भारतीय ही थे जिन्होंने दशमलव प्रणाली (Decimal Point Sysytem) का आविष्कार किया और इसी के साथ शून्य (ज़ीरो) का आविष्कार हुआ.

शून्य (ज़ीरो) के बारे में सबसे पहले महान गणितज्ञ 'ब्रह्मगुप्त' (598-660 A.D)  जिनका जन्म मुल्तान (अब पाकिस्तान में) हुआ,  ने अपनी पुस्तक "ब्रह्मगुप्त सिद्धांत" में दिया. जिसको बाद में भारतीय गणितज्ञ 'भास्कर' (1114-1185A.D.) ने थोडा संशोधित करते हुए, अपनी पुस्तक "लीलावती' में विस्तारपूर्वक लिखा. शून्य (ज़ीरो) के आविष्कार से ही प्रेरित होकर भारतीयों ने ऋणात्मक अंकों का आविष्कार किया और बाद में बीज गणित (algebra) को विकसित किया. 
आठवीं शताब्दी के दौरान बग़दाद के राजा "खोलोफ़-अल-मंसूर" ने अपने कुछ दरबारियों को भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान में) गणित, ख़गोल-शास्त्र, तथा चिकित्सा-शास्त्र पढने के लिए भेजा. यह दरबारी अपने साथ कुछ महत्वपूर्ण किताबें भी ले गए, जिनको इन्होने अरबी भाषा में रूपांतरित/अनुवाद किया.

अरब के प्रसिद्ध गणितज्ञ अल-ख्वारिज़मी (790 AD-850AD) सन 830 A.D. में  भारत आये और भारतीय अंक प्रणाली को पूरे विश्व में अपनी किताब 'हिसाब-अल-जब्र-व-अल-मुकाबीलाह' के द्वारा प्रसिद्ध किया. इन्होने संस्कृत शब्द 'शून्य' को अरबी में 'सिफ़्र' अनुवाद किया, जिसका मतलब कुछ नहीं होता है. यही 'सिफ़्र' लैटिन में "ज़फ्यर" (ZEPHYR) हो गया. जो आगे चल कर फ्रेंच में zero (ज़ीरो) हो गया.... और यही ज़ीरो फ्रेंच से अंग्रेज़ी में आ गया... 
आज पूरे विश्व में ज़ीरो (शून्य) के आविष्कार से भारत कि एक अलग महत्ता है. 

आइये अब जानें क्यूँ यूरोपीय व कुछ एशियाई देश शून्य (ज़ीरो) को 'ओ' (O) बोलतें हैं? 

अब जैसा कि हम सब को मालूम है कि शून्य (ज़ीरो) भारत की देन है. और शून्य (ज़ीरो) को अंग्रेज़ी के "O" आकार में लिखते हैं जिसको जब हम लिखते हैं तो जहाँ से शुरू करते हैं तो वहीँ पर ख़त्म भी करते हैं. और शून्य का मतलब "कुछ नहीं" होता है. यानी की घूम-फिर के वही. हमें यह भी मालूम है कि यूरोपियन देशों में भारत को सपेरों का देश कहा जाता है, तो इन यूरोपिअनों से कभी बर्दाश्त नहीं हुआ कि कैसे एक सपेरों के देश ने शून्य (ज़ीरो) का आविष्कार कर दिया? जबकि सारे महत्वपूर्ण आविष्कार यूरोपीय देशों में ही हुए हैं. यूरोपियन देश भारत को नीचा दिखाने के लिए शून्य या फिर ज़ीरो नहीं बोलते हैं.... ज़ीरो भी इसलिए नहीं बोलते हैं...  क्यूंकि लैटिन भाषा कि उत्पत्ति स्पेनिश और पोर्टुगुइसे(Portuguese) भाषा  से हुई है... और स्पेन,फ्रांस और पुर्तगाल ब्रिटिश और अमरीकन साम्राज्य (COLONY) रहे हैं..... जिनको अपनाना यूरोपियन देशों कि शान के खिलाफ रहा है.....
और यही रवैया यह देश भारत के साथ अपनाते हैं... यूरोपियन देशों के स्कूलों में शून्य (ज़ीरो) नहीं बताते हैं.... अगर हम इन्टरनेट पर भी शून्य से सम्बंधित लेख देखें तो उन लेखों में यूरोपियन टच मिलेगा...... न कि भारतीय....  यह देश शून्य या ज़ीरो न बोल के हम भारतीयों कि बेईज्ज़ती करते हैं, तथा हमारी उपलब्धियों को नकारते हैं... 1956 में एक अमरीकन फिल्म "ALEXANDER THE GREAT" आई थी उसमें भी यही बताया गया था कि ज़ीरो यानि कि शून्य का आविष्कार PTOLEMY ने किया था. जिस पर भारत कि ओर से कोई बहस नहीं कि गई थी. 
आज विडम्बना यह भी देखिये.... कि कई भारतीय भी अब शून्य यानी कि ज़ीरो को 'ओ' (O) ही बोलते हैं. शायद वो जानते नहीं हैं.... कि 'ओ' (O) बोल कर खुद कि ही बेईज्ज़ती कर रहें हैं. 


सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

हौले से तुम्हारे कानों में कहता हूँ कि आई लव यू...



किस वक़्त कहूँ मैं कि ,
आई लव यू?
उस वक़्त जब तुम मुझे 
देख हलके से मुस्कुरा देती हो?
या उस वक़्त जब मैं परेशां 
होकर तुम्हे देखता हूँ,
और तुम मेरे हाथों में अपना हाथ देकर,
मेरी सारी परेशानी समेट लेती हो?
तुम रूठ जाती हो,
मेरी किसी बात पर 
मैं मनाता हूँ और,
तुम फिर छुईमुई सी 
मेरे सीने से लग जाती हो,
और मैं तुम्हारे काले बालों को 
पीछे सरका कर,
हौले से तुम्हारे कानों में कहता हूँ,
यही बारम्बार,
कि 
आई लव यू,
आई लव यू.......

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

आरती ओम् जय जगदीश हरे का सच..... आईये जानें इसको और इस आरती के जनक को......



शारदा राम "फिल्लौरी" 19वीं शताब्दी के प्रमुख सनातनी धर्मात्मा थे. एक समाज सुधारक होने के साथ-साथ उन्होंने हिंदी तथा पंजाबी साहित्य क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किये. आधुनिक हिंदी के क्रमिक (Gradual) विकास में इनका अप्रतिम योगदान कभी न भुलाया जा सकेगा. 

बहुत कम लोग ही इस सच्चाई से वाकिफ होंगे कि दुनिया भर में प्रसिद्ध  प्रार्थना (आरती) 'ओम् जय जगदीश हरे' जो आज पूरे दुनिया में हिन्दू परिवारों में पूजा पद्धति के रूप में गाई जाती है के जनक(Father) श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" थे. उनके द्वारा लिपिबद्ध कि गई यह प्रार्थना (आरती) उनके अपने जीवन काल में ही एक नई ऊंचाई को छू लिया था. श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" के लिए श्रद्धा का मतलब इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण था. 
मात पिता तुम मेरे,शरण गहूं मैं किसकी ,
तुम बिन और न दूजा,आस करूं मैं जिसकी...
भक्ति-भाव के प्रति समर्पण इनके द्वारा लिपिबद्ध कि गई प्रार्थना (आरती) के एक-एक पंक्ति में स्पष्ट रूप से झलकता है. वे दृढ रूप से इश्वर के प्रति समर्पण में विश्वास रखते थे.  सत्यधर्म व शतोपदेश ने श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" को अनंत समर्पण के कवि के रूप में स्थापित किया तथा उनके कार्यों को भक्तिकाल के तुलसीदास व सूरदास के समकालीन माना. 

श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" का जन्म जालंधर (पंजाब) के एक गाँव फिल्लौर के ब्राह्मण परिवार में 30 सितम्बर 1837 को हुआ था. इनके पिता श्री. जय दयालु जाने-माने ज्योतिषी थे. अपने पुत्र के जन्म के समय ही उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि उनका उनका पुत्र अपने अल्पकाल के जीवन में यश-कीर्ति कमाएगा और उनकी यह भविष्यवाणी सच साबित हुई. श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" ने गुरमुखी  भाषा व लिपि का अध्ययन सन 1844 में सात साल कि उम्र में कर लिया था.

बाद के सालों में उन्होंने हिंदी, संस्कृत, फारसी और ज्योतिष कि भी शिक्षा ली तथा सन 1850 में संगीत विशारद कि उपाधि ली. श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" का विवाह सिख औरत महताब कौर से हुआ था.  सन 1858 में श्री. शारदा राम की मुलाक़ात एक ईसाई पादरी न्यूटन (NEUTAN) से हुई तथा सन 1868 में उन्होंने गुरमुखी भाषा व लिपि में पहली बार बाइबल का अनुवाद किया. 

"सिखां दे राज दी विथिया" और "पंजाबी बातचीत" गुरमुखी लिपि में श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" की यादगार रचनाएँ हैं. "सिखां दे राज दी विथिया" (प्रकाशन 1866)और "पंजाबी बातचीत" ऐसी प्रथम किताबें हैं जिनका अनुवाद गुरमुखी लिपि से रोमन लिपि में हुआ है. "सिखां दे राज दी विथिया" के सृजन ने शारदा राम को आधुनिक गद्य के जनक के रूप में स्थापित किया. यह किताब तीन अध्यायों में है. इसके आखिरी अध्याय में पंजाब के रीती-रिवाज़ , आम बोल-चाल के शब्द तथा लोक संगीत के बारे में जानकारी दी गई है. इसी कारण से इस किताब को पंजाब में पाठ्य-पुस्तक के रूप में उच्च शिक्षा के लिए निर्धारित किया गया था. 

"पंजाबी बातचीत" में पंजाब के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित कहावतें, मुहावरों व क्षेत्रीय भाषा शैली का चित्रण किया गया है. पंजाबी शब्दकोष से लुप्त हो चुके तथा दुर्लभ शब्दों को पाठक पंजाबी बातचीत में खोज सकते हैं. ब्रिटिश काल में भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश लेने के लिए ब्रिटिशों और भारतियों को पंजाबी बातचीत पर आधारित विस्तार पूर्ण (Subjective) परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य (Mandatory) था. 

श्री. शारदा राम भारत के प्रथम उपन्यासकार के रूप में भी जाने जाते हैं. उनके द्वारा लिखित प्रथम हिंदी उपन्यास "भाग्यवती" जिसको निर्मल प्रकाशन ने सन 1888 में प्रकाशित किया था. इस उपन्यास की केंद्रीय पात्र एक स्त्री भाग्यवती है जो लड़की के पैदा होने पर अपने पति को समझाती है की लड़का और लड़की में कोई भेद नहीं है. इस उपन्यास में श्री. शारदा राम ने  बाल-विवाह, दहेज़-प्रथा व शिशु (बालिका) -हत्या का प्रबल विरोध किया है तथा विधवा-विवाह व प्रौढ़-शिक्षा का घोर समर्थन किया है. इसी वजह से यह उपन्यास अपने समय से काफी आगे था. दिलचस्प बात यह है कि उस ज़माने में यह उपन्यास माता-पिता द्वारा अपनी बेतिओं को उनके विवाह के समय दहेज़ स्वरुप भेंट किया जाता था. 

ऐसा माना जाता है कि भारत का प्रथम हिंदी उपन्यास सन् 1902 में प्रकाशित "प्रीक्षा-गुरु" (PRIKSHA-GURU) था जिसके लेखक श्री. लाला श्रीनिवास थे. परन्तु डॉ. हरमोहिंदर सिंह बेदी जो कि गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं, के खोजों  व ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार भारत का प्रथम हिंदी उपन्यास "भाग्यवती" था जिसने भारतीय साहित्य के इतिहास को दोबारा लिखने को मजबूर कर दिया. 

श्री. शारदा राम "फिल्लौरी" एक श्रेष्ठ चिन्तक होने के साथ - साथ स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति थे तथा वेदों व शास्त्रों की व्याख्या अपनी सोच व ढंग से किया करते थे. श्री. शारदा राम "फिल्लौरी ने देश की आज़ादी के आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था. महाभारत से उद्धृत अपने भाषणों का इस्तेमाल उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ किया था. जिसके लिए अंग्रेज़ों ने उन्हें अपने गाँव फिल्लौर से देश निकला दे दिया था. 

इसे विड़म्बना ही कहेंगे की जिस प्रार्थना (आरती) 'ओम् जय जगदीश हरे' से विश्व भर के हिन्दू अपनी दिनचर्या की शुरुआत करते हैं उसी प्रार्थना (आरती) के जनक को भुला चुके है. श्री. शारदा राम "फिल्लौरी का देहांत मात्र 44 वर्ष की अल्प आयु में 24 जून 1881 को लाहौर में हुआ. 

अपने साहित्यिक अनुसरण और भाषणों से श्री. शारदा राम "फिल्लौरी ने न सिर्फ पंजाबी साहित्य में महत्वपूर्ण विकास किया बल्कि हिंदी साहित्य को भी अपने अप्रतिम योगदान से एक नया आयाम दिया.


Sources (सन्दर्भ) :--
१. गुरु नानक विश्वविद्यालय, अमृतसर. (फोटो भी यहीं से लिया है)
२. डॉ. हरमोहिंदर सिंह बेदी (प्रो. व डीन हिंदी विभाग GNDU, अमृतसर.... किसी भी प्रकार का शुबह होने पर इनसे इस नंबर पर 9356133665 संपर्क  किया जा सकता है.)
३. प्रस्तुत लेख सत्य तथ्यों और स्वयं किये गए शोध  पर आधारित है. 
(आप सब को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाएं....)

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

क्या सब ओ.के. (O.K.) है? आइये जानें ओ.के. (O.K.) का सच और इतिहास...


ओ.के. (O.K.) शब्द हम सब अपनी ज़िन्दगी में रोज़ाना प्रयोग करते हैं. इस शब्द के बिना हमारा दैनिक जीवन अधूरा है. जब भी हम किसी से मिलते  हैं  तो ओ.के. (O.K.) शब्द का प्रयोग करते हैं. जब भी हम अपनी बात ख़त्म करते हैं तो ओ.के. (O.K.) का इस्तेमाल करते हैं. किसी भी बात की तस्दीक करने के लिए हम ओ.के. (O.K.) शब्द को ज़ोरदार तरीके से रखते हैं. कारपोरेट की दुनिया में यह ओ.के. (O.K.) शब्द के बिना कोई भी काम अधूरा है. किसी भी दस्तावेज़  का अनुमोदन इस ओ.के. (O.K.) शब्द के बिना पूरा नहीं होता. यह ओ.के. (O.K.) शब्द हमारे ज़िन्दगी का एक अभिन्न अंग बन चुका है. चाहे अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा ओ.के. (O.K.) ज़रूर बोलता है. ORG Survey के मुताबिक दुनिया का हर इंसान रोज़ाना अपने दैनिक जीवन में ओ.के. (O.K.) का प्रयोग कम से कम बीस बार ज़रूर करता है.


ओ.के. (O.K.) का प्रयोग सब तब करते हैं जब सब सही होता है और इसी सही को तस्दीक करने के लिए हम आखिर में ओ.के. (O.K.) बोलते हैं यानी की सब ठीक हैं. शब्दकोष (Dictionary) में भी अगर हम इसका मतलब देखें तो यह Colloquial (आम बोल चाल के शब्द) के रूप में ही दिखाई देगा. जिसका मतलब ALL CORRECT (सब सही या ठीक है) लिखा होगा. और यह भी लिखा होगा की यह ORL OR OLL KORREKT का संक्षिप्त रूप है.


हम हिन्दुस्तानी भी ओ.के. (O.K.) का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में बहुत करते हैं, और ऐसा भी माना जाता है की पूरे विश्व में हिन्दुस्तानी ही इस शब्द ओ.के. (O.K.) का प्रयोग अपने जीवन में सबसे ज्यादा करते हैं.


आये दिन कई लोग मुझसे सवाल भी करते थे... कि यह ओ.के. (O.K.) क्या है? इसका पूर्ण रूप क्या है? और इसका क्या मतलब है? मुझे भी थोडा रुचि जगी, और मैंने इसे शोध करना शुरू किया. मैंने इसे इन्टरनेट पर wikipedia और भी कई websites पे देखा, लेकिन इसकी authenticity कहीं नहीं मिली. इन्टरनेट पर या फिर विकिपीडिया पर अगर कोई जानकारी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वो सही ही हो. यह मैं ही नहीं कहता ज़्यादातर अकादमिक लोग भी कहते हैं. मैंने जो शोध किया है, वो पूरी तरह AUTHENTIC है. इस पर अगर किसी को भी  कोई शुबह हो ज़रूर बताये. मेरा यह लेख श्री. खुशदीप सहगल जी को समर्पित है, जिन्होंने मुझे इस पर शोध करने और लिखने को प्रेरित किया. इस लेख को लिखने में मैं श्री. अजित वडनेरकर जी का भी आभारी हूँ, जिन्होंने शब्द संयोजन में मेरी मदद की.


हम में से कई लोगों को इस ओ.के. (O.K.) के बारे में नहीं पाता है. सिर्फ चूकि यह प्रचलन में है,  और सिर्फ बोलने के लिए इसे बोलते हैं. खैर! जब हम शब्दकोष भी देखते हैं, चाहे वो Cambridge, ऑक्सफोर्ड, Brittanica, या फिर  Wren & Martin ही क्यूँ न हो? उसमें हमें यही मिलता है कि इसका मतलब ALL IS CORRECT (सब सही है) है. और यह ORL OR OLL KORREKT का संक्षिप्त रूप है.  अगर यह ORL OR OLL KORREKT का संक्षिप्त रूप है, तो फिर ORL OR OLL KORREKT क्या है? इसका मतलब क्या है? इसकी उत्पत्ति क्या, क्यूँ और कैसे है? क्यूँ ओ.के. (O.K.) ORL OR OLL KORREKT का संक्षिप्त रूप है?


आइये अब जानें इस ओ.के. (O.K.) को?


ओ.के. (O.K.) सारत्व रूप से अमरीकन शब्द है जो अंग्रेजी भाषा से दूसरी भाषाओं में भी फैला है. काफी सालों तक यह ओ.के. (O.K.) शब्द अकादमिक रूप से बहस का विषय बना रहा जब तक के ALLEN WALKER READ ने यह न साबित कर दिया कि   यह ओ.के. (O.K.) एक बेवकूफाना शब्द है जो कि मज़ाक में शुरू हुआ और इसका इस्तेमाल मसखरेपन के लिए किया गया. ओ.के. (O.K.) शब्द को दस्तावेज़ी रूप में सन 1839 में दर्ज किया गया, जबकि यह 1839 से पहले ही प्रचलन में था.
1830 के दौरान अमरीका के BOSTON, MASSACHUSETTS के अख़बारों में एक मजाकिया प्रचलन था कि किसी भी  वाक्य-खंड (PHRASE) के आरंभिक अक्षरों के अक्षर (INITIALS) को छोटा कर के लिखा जाये और फिर उनका विवरण PARENTHESIS ( ) में पूरा लिखा जाये. कई बार मज़ाक का पुट देने के लिए इन संक्षिप्त रूप में लिखे गए शब्दों के विवरण कि वर्तनी (SPELLINGS)  गलत कर दी जाती थी.  यह आज भी आप अब भारतीय अंग्रेजी अख़बारों में भी  देख सकते हैं.  इसी के तहत BOSTON के अख़बारों ने ओ.के. (O.K.) शब्द जिसका मतलब अंग्रेज़ी में ALL CORRECT (सब सही है.) होता है को ORL OR OLL KORREKT (OK) लिखना शुरू  किया. एक बात और कि यह ORL OR OLL KORREKT भी एक सही शब्द है. इसका इस्तेमाल सिर्फ अंग्रेज़ी में मज़ाक का पुट देने के लिए किया गया था.


आईये अब आपको बता दूं कि ORL OR OLL KORREKT अंग्रेज़ी भाषा का शब्द नहीं है, यह डच (DUTCH) भाषा का शब्द है जिसका मतलब ALL CORRECT (सब सही है.) होता है. जिसको BOSTON  के अख़बारों ने मजाकिया पुट देने के लिए अंग्रेज़ी में शामिल कर लिया. अब जैसा कि मालूम है सबको कि अंग्रेज़ी इसीलिए इतनी समृद्ध है क्यूंकि इसने हमेशा दूसरी भाषाओं कि इज्ज़त की और उनके भाषा से अपने शब्द समूह को मज़बूत किया. तो यह कोई नयी बात नहीं है. और तबसे यह अंग्रेज़ी में प्रचलित हो गया. अमरीकी अख़बारों ने उस वक़्त अमरीकनों को यह नहीं बताया कि यह एक डच शब्द है, जिसमें सिर्फ वर्तनी का अंतर था जबकि मतलब एक ही था (ALL CORRECT)...


इसी के साथ ही साथ इस ओ.के. (O.K.) शब्द का इस्तेमाल और इसको प्रचलित करने में अमरीका के आठवें राष्ट्रपति MARTIN VAN BUREN (1837 से 1841) का भी योगदान था. सन 1840 में जब MARTIN VAN BUREN दोबारा राष्ट्रपति चुनाव के लिए खड़े हुए तो इस ओ.के. (O.K.) शब्द का इस्तेमाल उन्होंने अपने चुनाव अभियान में किया. MARTIN VAN BUREN डेमोक्रेट (DEMOCRAT) पार्टी से चुनाव लडे  थे और उनके अनुयायिओं ने पार्टी निर्देश  के अनुसार O.K. ओ.के. (O.K.) CLUB बनाया था, क्यूंकि MARTIN VAN BUREN न्यूयार्क के OLD KINDERHOOK (OK) नामक गाँव के रहने वाले थे.  इसलिए उनके गाँव OLD KINDERHOOK के नाम का संक्षिप्त रूप OK था . इस O.K. को उस चुनाव में ALL CORRECT (सब सही  है.) के रूप में प्रचारित किया गया था, जिसका मतलब उस वक़्त यह था कि डेमोक्रेट पार्टी ही सही है. एक बात और बता दूं कि MARTIN VAN BUREN पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जिनकी पैदाइश अमरीकन थी परन्तु वंशावली (ANCESTRY) डच (DUTCH) थी. उनके पिता डच थे जो कि सन 1762 में अमरीका के न्यूयार्क शहर के  OLD KINDERHOOK नामक गाँव में आकर बस गए थे और यहीं 1782 में MARTIN VAN BUREN का जन्म हुआ. 


सन 1840 में MARTIN VAN BUREN ने इस O.K. को अपने चुनाव अभियान से जोड़ा, क्यूंकि इससे उनका दो फायदा हो रहा था, एक तो उनकी पार्टी ही सही है का सन्देश जा रहा था और दूसरा यह उनका गाँव भी था. परन्तु MARTIN VAN BUREN चुनाव हार गए... तो पूरे अमरीका ने उनके इस O.K. का बहुत मज़ाक उड़ाया. तबसे यह ओ.के. (O.K.) शब्द मज़ाक के रूप में प्रचलित हो गया. उनके चुनाव अभियान में यह नारा (SLOGAN) भी था "VOTE FOR O.K BECAUSE HE IS OLL KORREKT".


सन 1840 में ही MARTIN VAN BUREN  और उनकी डेमोक्रेट पार्टी ने इस O.K. को PATENT कराना चाहा लेकिन पेटेंट कार्यालय ने यह कह कर पेटेंट करने से मना कर दिया कि जो बेवकूफी मज़ाक में शुरू कि गयी थी अब वो दैनिक जीवन में शब्द का रूप ले चुकी है, इसलिए इसका पेटेंट नहीं हो सकता.


ओ.के. (O.K.) को अंग्रेज़ी व्याकरण में संज्ञा (NOUN) के रूप में 1841 में दस्तावेज़ी रूप से दर्ज किया गया, विशेषण (VERB) के रूप में 1888  में और INTERJECTION के रूप में आधिकारिक रूप से सन 1890 में दर्ज किया गया. 


आज ओ.के. (O.K.) ने संसार भर में एक पहचान बना ली है. और यह हर प्रकार के भाषा और लेखनी में पाया जाता है. 







शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

एक घरौंदा जो बनाया था, बरसात में बह गया.




आईने से बातें करते करते थक गया,
कतरा-कतरा आँखों से कुछ बह गया,
जो नींव मैंने रखी थी उस मकां की,
वो मकान ढह गया.
कई लोग आये,
और देख कर चले गए,
शीशा फिर भी
चमकता रह गया,

ख़ुद से कहा वफ़ा कि नुमाइश मत कर
और यह सितम मेरा दिल सह गया,
एक घरौंदा जो बनाया था,
जिसे हम दोनों ने सजाया था,
बरसात में देखिये बह गया.

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मेरे अन्दर एक नयी शक्ति का वास है, कुछ भी कर सकना अब मेरे बस कि बात है..


सपनों कि मंज़िल  तक पहुँचने कि
ख़्वाहिश है,
पर रास्तों में कांटो की बारिश है,
किस कदर अपने क़दमों को रोकूँ मैं?
इधर कुआँ, तो उधर खाई नज़र  आई है.


ख़्वाहिश तक पहुँचने की ख़्वाहिश,
दिल में दब गयी  ऐसा लगा,
सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश
नाकाम रही,
लगा, मानों मंज़िल मेरे सामने खडी
हंस कर कह रही है,
"सपनों को सपना ही रहना दो,
पलकों की मीठी छाँव में सोने दो"


हकीकत से लड़ो, हकीकत का सफ़र तय करो,

ख़्वाहिश नहीं रह जायेगी,
फिर यह ख्वाहिश तुम्हारी .....


मैंने उस हंसी का परिहास किया 
और कहा
"सपनों के रास्ते में हकीकत कि मंज़िल है,
मेरा विश्वास है, सपनों कि मंज़िल अब मेरे पास ही है."
अब
मेरे अन्दर एक नयी शक्ति का वास है,
कुछ भी कर सकना अब मेरे बस कि बात है..


धन्यवाद! किसको दूं मैं ?
उस मंज़िल के हास्य को या अपने उस परिहास को?
या उस पहचान को?
जो मेरी मंज़िल बन चुकी है..........
  

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

अब तो जीतने की आदत हो गयी है मुझे तो......


पता नहीं क्यूँ? 


अब मुझे जीतने कि आदत हो गयी है.... मैं अब हारना नहीं चाहता, किसी भी FRONT पे ... मुझे अब हार जैसे शब्द से चिढ हो गयी है. मैं ऐसे ही अपने पिछले एक साल का विश्लेषण कर रहा था, तो रिजल्ट यही निकला कि इन एक सालों में मैं कहीं हारा नहीं हूँ, मैं हर मोड़ पे जीता ही हूँ, वैसे भी मैं शुरू से ही यानी कि बचपन से मैं हर मोड़ पे जीता ही हूँ, मुझे गुमनामी से बहुत डर लगता है. मैं COMMON MAN बन कर नहीं रह सकता..... मेरे लिए कुछ भी IMPOSSIBLE नहीं है, मुझे हर वक़्त ATTENTION ही चाहिए होता है. मैं हमेशा कोई भी काम शुरू करता हूँ तो यही मान कर चलता हूँ कि इसमें मुझे सफलता मिलेगी. और यही सोच कर आगे बढ़ता हूँ..... और फिर वो सफलता पाने के लिए कुछ भी कर देता हूँ. अगर मेरे सफलता के रस्ते में कोई मुश्किल आती भी है.... तो मैं हर मुश्किल को तोड़ देता हूँ... मैं सफलता पाने के लिए कुछ भी कर सकता हूँ. चाहे वो अच्छा हो या बुरा.... मैं हर रोडे को हटा देने कि कोशिश करता हूँ..... यहाँ तक कि इन एक सालों में कई (तथाकथित) लोग भी मेरे रस्ते में रोडे अटकाने आये..... पर मैं उन सबको दूर करते हुए.... अपनी सफलता को पाया हूँ..... मेरा एक उसूल है शायद ...कि अगर कोई मेरे सफलता के रस्ते में आयेगा ...तो पहले तो समझाऊंगा.....  फिर.... भी नहीं माना.... तो साम, दाम, दंड और भेद का इस्तेमाल करूँगा.... इसपे भी नहीं माना तो इतना torture कर दूंगा....  कि मरने के कगार पे आ जायेगा ....और शायद यही सफलता है..... मैं SHAKESPEARE के सिद्धांत पे चलता हूँ... कि.. "BEHIND EVERY GREAT SUCCESS THERE IS A CRIME"....अब यह CRIME कुछ भी हो सकता है..... अब तो जीतने की ही ललक है.....


हार - जीत तो लगी ही रहती है ज़िन्दगी में, लेकिन पता नहीं मेरे साथ ऐसा क्या है... कि मैं अपनी हार कभी बर्दाश्त नहीं कर पाता.... अगर कभी मुझे हार का सामना भी करना पड़ता है न.... तो मैं उस हार को सह नहीं सकता....  मैं फिर से कोशिश करता हूँ और तब तक करता हूँ... जब तक के जीत न जाऊँ..... ऐसे ही मैं कभी अपनी बेईज्ज़ती नहीं बर्दाश्त कर सकता..... अगर कोई ऐसी कोशिश भी करता है... तो उसे वहीँ रोक देता हूँ.... अगर फिर भी वो कोशिश करे तो मेरे पास सिर्फ एक ही रास्ता रहता है.... वो है मारना.... मैं कई बार ऐसे भी हालत में पहुंचा हूँ कि मुझे सामने वाले को इस हद तक पीटना/पिटवाना  पड़ा कि बस आप यह समझो कि वो शमशान या कब्रिस्तान के दरवाज़े से लौट के आया..... CAREER   ( देखिये ! एक बात बता दूं ...कि नौकरी और CAREER में ज़मीन आसमान का DIFFERENCE है..... नौकरी तो हर कोई कर लेता है.... पर CAREER कितने लोग बना पाते हैं? तो नौकरी और करियर दोनों ही अलग चीज़ हैं... जो लोग CAREER बनाते हैं वो लोग सफल लोग होते हैं... जो सिर्फ नौकरी करते हैं.... वो नालायक... और CAREER बनाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है... नौकरी करने के लिए सिर्फ वक़्त देना पड़ता है ...पर CAREER  के लिए वक़्त और खुद को भी देना पड़ता है....) में भी कई मुकाम ऐसे आते हैं..... कि आपको लगता है कि अब सब गया.... पर मैं ऐसे SITUATIONS  में भी जीत के ही आया हूँ.... मैं रिश्तों में भी जीत ही देखता हूँ, मुझे अपने लोगों को बाँध कर रखना अच्छा लगता है, पर कोई रिश्ता अगर मुझे दर्द देता है तो उस रिश्ते को ख़त्म करने में भी कोई वक़्त नहीं लगता हूँ... हाँ! ख़त्म तो करता हूँ रिश्ता पर हमेशा अपनी शर्तों पर..... मैं किसी को खुद को लात मारने का मौका नहीं देता.....और फिर पलट के कभी नहीं देखता....और यही मेरी जीत भी है...


इन एक  साल का विश्लेषण कर रहा हूँ आज तो यही लग रहा है कि मेरी फितरत अब जीत कि ही हो गयी है. मुझे हर हाल सफलता ही चाहिए चाहे उसके लिए किसी भी हद तक गुज़र जाना पड़े.



पर अब मुझे हारना मंज़ूर नहीं है....वैसे कभी भी नहीं रहा है.... मैंने हमेशा वो पाया है ...जिसको पाने कि कोशिश मैंने की.... और अब यह आदत बन गयी है.... अब मुझे पीछे रहने में डर लगता है.. यह एक साल मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है...... तमाम उतार-चढाव से ..... गुज़र कर आज विश्लेषण कर रहा हूँ..... तो कई बातें ध्यान में आ रही  है...... विनर वही होता है....जो  हर मुसीबतों और मुश्किलों  में से भी रास्ता निकाल कर आगे बढ़ता है.... चाहे इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े..... मेरा यह मानना है कि अगर आपको अपना SELF-ESTEEM को बचाए रखना है तो हमेशा COMPETITION में रहिये... और यही मान के चलिए कि मुझे जीतना ही है हर हाल में, अगर किसी का नुक्सान करके आपका फायदा हो रहा है... तो आप उस हद तक चले जाइये . यकीन करिए... इसमें कुछ गलत नहीं है....


अब अंत में एक सवाल.... 


SHAKESPEARE ने कहा था कि "BEHIND EVERY GREAT SUCCESS THERE IS A CRIME" ...
                ("हर महान सफलता के पीछे कोई  न कोई अपराध  ज़रूर  होता है"...)


तो यहाँ  CRIME (अपराध)से क्या मतलब है?

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

गाँधी-स्मृति में......



१.
मैं थोडा उत्तेजित हूँ,
दो अक्टूबर ! 
गाँधी का जन्मदिन
समाधि पर फूल चढाने
और कुछ क्षण शांत
मौन खडा सोचता,
"क्या यहाँ कभी कोई आता भी है और भी किसी दिन?"
शायद ! गाँधी कि याद में
"गाँधी" टंका रह गया है?
या फिर गाँधी के मरने के बाद,
हे! राम
कुछ ज्यादा ही प्रेम हो गया है?
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२.
जल रहा है भारत,
जल रहें हैं गाँधी के सपने,
किसने लगायी यह खुशियों में
यह आग?
कितने विभाजन?
कितने आपातकाल?
कितने गोधरा?
और कितने अयोध्या?
क्यूँ है छदम-धर्म निरपेक्षता?
क्यूँ है, तू बहुजन?
तू समाजवादी?
तू ठाकुर?
तू ब्राह्मण?
और तू मुसलमाँ? 
क्यूँ  नहीं हैं सब अपने?
अब तो ....
जल रहा है भारत....
जल रहे हैं गाँधी के सपने.............
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