यह उन दिनों की बात है
जब मेरा बचपन
पिता की ढीली होती हुई पकड़
का गवाह हो रहा था।
समझ की उम्र के साथ
मैंने यह जाना
कि माँ का सिर्फ सरनेम बदला है
मगर पिता पूरी तरह बदल गए हैं।
फिर मैं लड़ाई की उम्र में आ गया
वर्षों तक लड़ने के बाद मैंने जाना
कि रात से लड़ना बेवकूफी है,
इसे विश्राम की मुद्रा में
धैर्य से भी काटा जा सकता है
और यदि हम लड़ते रहे तो
रात भर की लड़ाई में
हम इतने थक चुके होंगे
कि सुबह के सूरज का
स्वागत करने की ताक़त
हमारे रात भरे हाथों में नहीं होगी।
इसीलिए मेरी चीख चिल्लाहटें बेकार
साबित हो गयीं ,
मैं यह देख नहीं पाता था कि
साड़ी माँ ने पहनी है
मगर
मंगलसूत्र पिता के गले में
अटका हुआ है
और फिर
उन आँखों में पिता तलाशना बहुत
बड़ी बेवकूफी है,
जिनमें पिता ज़िंदा है।
जिन उँगलियों में
हम पिता तलाशते हैं
वे स्पर्श की प्रतीक्षा करते हुए
पति के हाथ हैं
चौकलेट और लौलिपौप
तो तुम्हे दर किनार करने का
बहाना है।
और
वो स्कूल जिसकी टाट पट्टी पर
तुम बड़े हो रहे हो
तुम्हारी पढाई की तरह ही सस्ता है ,
जिसकी छतों से टपकते हुए पानी से
तुम्हारे शरीर पर
बड़े भाई का कुरता
गीला हो गया है
और तुम्हे
पढ़ाने वाला टीचर
घंटी के डर से
शरीर की कतार से हताश
लौट आया है।
लौट आया है।
तुम
एक अनिश्चय में जन्म लेकर
दुसरे अनिश्चय में बड़े
हो रहे हो ....
फिर
तुम भी धीरे धीरे लड़ते हुए
इतना थक जाओगे
कि तुम्हारे भीतर से
उभर कर मंगलसूत्र
तुम्हारे गले में
आ जायेगा
फिर
एक मिला जुला
अनिश्चय
जन्म लेगा
और टपकती छतों और
गीली टाट पट्टी
पर भीगता हुआ
बड़ा हो जायेगा।