हर मर्द के ज़िन्दगी में माँ का होना बड़ा ज़रूरी होता है क्यूंकि एक माँ ही होती है जो बच्चे को समझती है. मेरी माँ कहतीं थीं हमें जाहिलों के मुँह नहीं लगना चाहिए... यह सोचते और पढ़ते कुछ और हैं और समझते कुछ और हैं... जाहिल आदमी बहस ज़्यादा करता है जबकि समझदार आदमी कन्फ्यूज़ रहता है. माँ अगर बच्चे की पहली गलती है तो भी समझती है, दूसरी है तो भी समझती है , तीसरी है तो भी और यह सिलसिला पूरी ज़िन्दगी चलता रहता है. जब तक के बच्चा बूढा ना हो जाये. पता नहीं क्यूँ लोग ज़बरदस्ती गलतियां मनवाते है... और एक माँ होती है जो हर हर गलती को ढांकती है. पता नहीं क्यूँ लोग दोस्त होने का दम भरते हैं और एक माँ होती है जो हमेशा दोस्त ही रहती है. लोग भले ही पल में नकार दें लेकिन माँ किसी भी हालत में नहीं. माँ किसी भी हालात में पास ही रहती है. अच्छा मेरे समझ में एक बात और नहीं आती कि क्यूँ लोग ख़ुद को किसी की भी ज़िन्दगी में अपना वजूद इम्पौरटेंट समझते हैं? मेरे ख्याल से माँ से बढ़कर शायद ही किसी और का वजूद ज़िन्दगी में मायने रखता है.. बाक़ी तो आते हैं और फ़िर जाते भी हैं.. फर्क तो माँ के ना रहने से पड़ता है... रश्मि प्रभा मॉम... मुझे बहुत ख़ुशी है कि आप मेरी ज़िन्दगी में माँ के रूप में आईं.
आईये अब ज़रा कविता देखी जाए... बहुत साल पहले सिविल की तैयारी करते वक़्त .. एक काग़ज़ की दुकान से बड़े ऐ-2 साइज़ के पन्ने खरीदे थे.... सस्ते मिलते थे .... मैं और मेरा दोस्त इन्दर हम दोनों फ़िर उन ढेर सारे पन्नों को लेकर मोची के पास गए थे कि इन्हें चार पार्ट में काट कर सिल दो.. जिससे कि वो रफ कॉपी की शक्ल में आ जाएँ. मोची ने उनको सिलने से मना कर दिया था कि पाप चढ़ेगा. हमने उसे समझाया कि भाई किताब सिलने से पाप नहीं चढ़ेगा. किसी तरह माना वो और उसने सिल दिया. उन दिनों पैसे नहीं होते थे और जो पैसे घरवालों से मांगते थे वो बाक़ी चीज़ों जैसे चाय, सिगरेट, गर्ल फ्रेंड, और प्रतियोगिता दर्पण.....सी.एस.आर...द हिन्दू... खरीदने में चले जाते थे. उन्ही काग़ज़ के बचे हुए पन्नों पर पिछले साल जब मैं हाईबरनेशन की ज़िंदगी किसी कारणवश गुज़ार रहा था तो काफी कवितायें लिखी थीं. उन्ही पन्नों से कविता निकाल कर उनके शब्दों को अपने ब्लॉग पर बिखेरता रहता हूँ....
अच्छा मेरे साथ एक बात और है कि मैं किसी को भी अपने पास तभी आने देता हूँ जब मैं चाहता हूँ. मैं अपनी मिस्ट्री जल्दी नहीं खोलता हूँ.. और लोग बिना मतलब में कन्फ्यूज़ रहते हैं. और मुझे किसी भी रिश्ते को जो मुझे दर्द दे रहा है.. फ़ौरन ख़त्म करने में देर नहीं लगाता. मेरे लिए कोई भी रिश्ता कभी भी मायने नहीं रखता सिवाय माँ का.. अगर मेरी माँ आज ज़िंदा होती.. तो मैं रोज़ उसके पैर धो कर .. फ़िर वही पानी पी कर अपने काम पर जाता... लोग पता नहीं क्यूँ गलत सोच लेते हैं? घमंड तो नहीं ...हाँ! ऐटीट्युड कह सकते हैं. मैं बहुत ही ऐटीट्युड वाला इन्सान हूँ.. इससे कोई क्या मेरे बारे में सोचता है मुझे फर्क कोई नहीं पड़ता. मेरे लिए क्लास बहुत मायने रखता है. क्लास का मतलब पैसे से बिलकुल नहीं है. आजकल चार-पांच करोड़ रूपये तो हर किसी के घर में मिल जाते हैं. इसीलिए पैसे से बिलकुल नहीं है. क्लास बहुत ही डिफरेंट चीज़ होती है.. जो सिर्फ पर्सनैलिटी में झलक सकती है. सोशियो-सायको-अंडरस्टैंडिंग बिहेवियर भी कोई चीज़ होती है. लोग डिग्रियां तो ले लेते हैं लेकिन उन डिग्रीज़ को अपने अंदर ऐबजौर्ब नहीं कर पाते (एक मिनट ज़रा ऐबजौर्ब की हिंदी डिक्शनरी में देख कर आया..वी कॉन्वेंट बैक्ग्राउन्ड्स आर हैविंग ए लौट्स ऑफ़ प्रॉब्लम इन हिंदी ..यू नो..) हाँ! ऐबजौर्ब का मतलब आत्मसात करना होता है. तो डिग्रीज़ को अपने अंदर तक आत्मसात करना होता है. मैं भी कहाँ कविता की बात कर रहा था.. और कहाँ पहुँच गया.. आईये देखिये..कविता. मैं अपने हिंदी के गुरु अपने मित्र के मामा जी और मेरे भी ... श्री. उपाध्याय जी का बहुत शुक्रगुज़ार हूँ. आप मुझे हिंदी की टुईशन (प्रोनन्सियेशन टुईशन है ... ट्यूशन नहीं होता) देते हैं. मेरी यह कविता हिंदी-इंग्लिश मिक्स्ड थी.. .....जिसे श्री. उपाध्याय जी ने हिंदी के शब्दों में ढाला है.
(ऐटीट्युड तो आता ही है)
जब शरीर से सम्बन्ध बाहर निकल जाते हैं
नामालूम वर्षों का वेग,
लहरों के भीतर के मरोड़,
सभी जिस्म से
काई की तरह निकल जाते हैं
और सिर्फ निर्मल
और साफ़ जल रह जाता है.
इसीलिए इस आदम खेल में
आज भी आनंद बसा हुआ है.
शरीर से इगो निकल जाता है.
बस आदमी
और केवल औरत बच जाती है ,
सम्बन्ध
वेग की शक्ल अख्तियार करता है,
और बह जाता है
समूचे जिस्म में....
एक पल
शरीर में ऐसा आकर ठहरता है
जब समूचे सम्बन्ध झरने के वेग में
जिस्म से बाहर निकल जाते हैं.
और वो एक पल
पैर से लेकर सर तक
फैल जाता है,
आदमी, ताज़गी से भर जाता है
जब शरीर से सम्बन्ध बाहर निकल जाते हैं
तब
असंबंधित मनुष्य
बिलकुल खाली हो कर भी
बहुत कुछ अपरिचित से भर जाता है.
यह भराव
उसे ताज़ा बनाये रखता है
और फ़िर धीरे धीरे
वो फैला हुआ क्षण
सिमटने लगता है
और
सारा जिस्म
फ़िर पुराने संबंधों से भरने लगता है
मगर वो भराव
इन उलझे संबंधों को
सुलझाने की नई ताकत देता है
और
आदमी नये सिरे से
जुझारू हो जाता है.
(c) महफूज़ अली