आज से मैं लखनऊ का अनदेखा और अनजाना इतिहास पेश कर रहा हूँ. यह इतिहास मैंने नहीं लिखा है और ना ही मेरा इसे लिखने में कोई ऐसा योगदान है. यह वो इतिहास है जिसे हम जानते तो हैं लेकिन सिर्फ नाम से. लखनऊ वो शहर है जो पूरी दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अपनी तहज़ीब और बाग़ों के लिए जाना जाता है. लेकिन किसी को भी यह नहीं पता है कि लखनऊ कैसे और कब तहज़ीब और बाग़ों का शहर बना? ऐतिहासिक तौर पर भी लखनऊ के बहुत मायने हैं मगर वो इतिहास लखनऊ के वासी और देश के लोग नहीं जानते हैं. तो उसी इतिहास को सामने लाना ही मेरा उद्देश्य है. शुरुआत तो लखनऊ के इतिहास से कर रहा हूँ मगर वो देश का इतिहास भी होगा और विवादित भी हो सकता है. जो भी इतिहास मैं बताऊंगा वो पूरी तरह से तथ्यों (फैक्ट्स) पर आधारित हैं और मेरे द्वारा भी रिसर्च किये हुए हैं. हर लिखे हुए का सबूत मेरे पास है. अगर किसी को मेरे इतिहास लेखन पर आपत्ति होगी तो उसका कोई मतलब नहीं होगा. नॉलेज गेन करना हमारा शौक़ होना चाहिए. (मेरी कोशिश यह रहेगी कि मैं हिंदी का प्रयोग करूँ और सरल भाषा में अनदेखा अंजाना सा इतिहास आपके सामने रखूं). प्रस्तुत इतिहास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व एच.ओ.डी. श्री. शिव बहादुर सिंह ने अपने शोध से लिखा है और उसे लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास डिपार्टमेंट के पूर्व प्रोफ़ेसर श्री. डी.पी. तिवारी जी ने अनुमोदित किया है. इतिहास लिखने के लिए मैं हिंदी वाड्मय निधि खुर्शीदाबाद, लखनऊ का भी आभारी हूँ.
आजकल हमारे नगरों में बड़ी तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं. एक ओर नगर के पुराने निवासी अपनी विरासत से कटते जा रहे हैं तो दूसरी ओर बाहर से से आकर नगरों में बसने वाले उसके बारे में कुछ नहीं जानते. इसका नतीजा यह होता है कि हम ना तो अपने नगर जनपद से नाता जोड़ पाते हैं और ना ही गौरव का भाव ला पाते हैं. प्रेम और गौरव बोध के बिना हम अपने नगर जनपद को धर्मशाला या होटल से ज़्यादा भला क्या समझेंगे? और तब उसके विकास की फिकर क्यूँ करेंगे? अपने नगर से हमारा भावनात्मक सम्बन्ध होना ही चाहिए. पर यह तभी होगा जब हम उसके इतिहास को जानें, सांस्कृतिक विरासत से परिचित हों, विभिन्न वर्गों-साम्प्रदायों के नगर जनपद को योगदान का आंकलन करें. नगर जनपद से भावनात्मक प्यार वाह धागा है जो उसके सभी लोगों को बिना भेदभाव के जोड़ता है. अपने लखनऊ का परिचय देने के लिए हिंदी वाड्मय निधि के सहयोग से यह श्रृंखला ब्लॉग के माध्यम से लाने का मैंने प्रोमिस (निश्चय) किया है. मैं अपने हिंदी के गुरु श्री. उपाध्याय जी (मामा जी) का भी आभारी हूँ जो हिंदी लिखने, बोलने और प्रोंन्सियेशन में मेरी पूरी मदद कर रहे हैं. आईये आज थोडा सा लखनऊ के बारे में जानें और पूरी श्रृंखला से लखनऊ के इतिहास को एक अलग नज़रिए से समझें.
(यह रामायण अरबी और फ़ारसी में लिखी गयी है और सिर्फ लखनऊ में है)
यह सच है कि लखनऊ दुनिया में प्रसिद्ध तब हुआ जब वह अवध के नवाबों की राजधानी बना (1775 -1856) लेकिन उससे बहुत पहले लखनऊ शहर और ज़िला आबाद हो चुका था. अब तक की खोज और खुदाई से इस जनपद में मनुष्यों की बसती का प्रमाण लगभग चार हज़ार साल पहले मिलने लगता है. लखनऊ को सबसे पहले आबाद करने वालों के सम्बन्ध में अब तक के कहाँ और क्या प्रमाण मिले हैं, कैसे उनका जीवन बदला? फ़िर कैसे लखनऊ नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ने लगा जो नवाबों के समय शिखर पर पहुंचा. ऐसे ही कुछ लखनऊ के लम्बे इतिहास की कहानी मैं सामान्य भाषा में सामान्य पाठक के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ.
लखनऊ के विषय में लम्बे समय से यह समझा जाता रहा है कि इसका नामकरण अवध नरेश श्री. राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर हुआ था. यह एक रोचक तथ्य है कि इस मान्यता की पुष्टि आदि काव्य वाल्मीकि रामायण से होती है. रामायण के उत्तरकाण्ड में लोकापवाद से बचने के लिए राम द्वारा सीता के परित्याग का उल्लेख है. अयोध्या से सीता को गंगा के किनारे स्थित वाल्मीकि आश्रम में छोड़ने का दायित्व लक्ष्मण को सौंपा गया था, जिन्होंने सुबह रथ से यात्रा शरू कर गोमती तट पर स्थित एक आश्रम में रात को आराम किया था-- ततो वास्मुपगम्य गोमतीतीर आश्रमे (वा.रा.7/46-19). दूसरे दिन दोबारा सुबह अपनी यात्रा शुरू कर के दोपहर में वे गंगा तट पर पहुंचे फ़िर नाव से गंगा को पार कर सरिता तट पर स्थित ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में सीता को छोड़ दिया--
राज्ञो दशरथस्यैव पितुर्मे मुनिपुंगवः !! सखा परमको विप्रो वाल्मीकिः सुमुहायशः!
पाद्च्छयामुपागम्य सुखम्स्य महात्मनः! उपवासपरैकाग्रा वस त्वं जनकात्मजे!! (वा.रा. 7/47/16-17)
अब सवाल यह उठता है कि वह कौन सा स्थल हो सकता है जहाँ लक्ष्मण ने रात्री वास किया था और जहाँ से सुबह चलकर दोपहर गंगा तट पर पहुँच गए? वर्तमान लखनऊ शहर में गोमती किनारे स्थित लक्ष्मण टीला ही इस लिहाज़ से सबसे उपयुक्त दिखाई देता है. और यही टीला आज भी लक्ष्मण टीला के नाम से ही प्रसिद्ध है. यहीं रात्री विश्राम के बाद लक्षमण गंगा पार कर बिठुर स्थित वाल्मीकि आश्रम पहुंचे होंगे. कई कारणों से इस स्थल की खुदाई नहीं हो सकी है नहीं तो इतिहास की और भी परतें खुलतीं. यह भी कहा जाता है कि युधिष्ठिर के प्रपौत्र जनमेजय ने यह क्षेत्र तपस्वियों को दान कर दिया था.
इसके विपरीत लखनऊ गैज़ेटियर के अनुसार "लिखना" नाम के शिल्पी ने शेखों के शासनकाल में एक क़िला बनवाया जिसका नामकरण उसी के नाम पर लिखना क़िला पड़ा. आगे चल कर ऐसा कहा जाता है कि उसी के नम पर लखनऊ नगर का नाम पड़ा. अब यह भी विचारणीय है कि किसी क़िले का नाम शिल्पी के नाम पर रखना अस्वाभाविक है. यह भी सोचने वाली बात है कि शेख शासकों ने भला अपने क़िले का नाम अपने शिल्पी के नाम पर क्यूँ रखा होगा? इसके अलावा अवधी भाषा में "लिखना" किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता. वस्तुतः यह नाम 'लखना' हो सकता है जो लक्ष्मण नाम का ही अवधी अपभ्रंश है. संभवतः स्थानीय अवधी भाषा में लखना नाम बोलचाल की भाषा में लखनू, लखनुवा, लखनवा, और अंत में लखनऊ हो गया. अँगरेज़ जिसे प्रोनाउन्स नहीं कर पाते थे तो लैकनेओ बुलाते थे जिसकी वर्तनी (स्पेलिंग) अंग्रेज़ी में LUCKNOW लिखते थे और आज भी यही लिखी जाती है. क्रमशः ..... To be contd.....
आभार:
- हिंदी वाड्मय निधि लखनऊ
- डॉ. एस. बी. सिंह
- स्वयं
- मैं अपनी स्टेनो कम टाइपिस्ट रीना का भी शुक्रगुज़ार हूँ.. जिसे मुझे कुछ भी समझाना नहीं पड़ा... शी इज़ वैरी इंटेलिजेंट..
- ऋचा द्विवेदी