रविवार, 5 जुलाई 2009

अब कभी झगडा नही करूंगा.. ...... ...... promise

अभी मेरे मन् में

एक ख़याल आया

की

ज़िन्दगी भर

मैंने ख़ुद को लाचार पाया?

लोगों ने अपना बन के मुझे कितना सताया ?

लेकिन आज तुमने मुझे उम्मीद का सहारा दिया ........

मेरे झगडे और कड़वे बोल को हंस कर पिया

मैं जानता हूँ की मेरी वजह से

तुम्हारे मन् में एक तूफ़ान उठा है

और तुम्हारा दिल टूटा है ! ! !

फिर भी उदासी तुम्हारे चेहरे पर न आई

और

तुम मेरी हर बात पे मुस्कुराई

ठेस लगने पर भी तुम्हारा मन् न रो पाया

और अपने आंसुओं को बड़ी सफाई से छुपाया .....

अभी बंद करता हूँ मैं यह पाती

इस उम्मीद के साथ

की

काले बादल अब छट गए हैं

और

अब रंगों की बहार आएगी ही आएगी................

महफूज़ अली

(मुझे न गुस्सा मत दिलाया करो....... )

मंगलवार, 30 जून 2009

बोझ!!!!!!! : एक लघुकथा



"माँ - पिताजी , मैं घर रहा हूँ। "



कारगिल युद्ध समाप्त होने के : महीने बाद अपने माता - पिता को, श्रीनगर आर्मी बेस कैंप से, फ़ोन पर सूचित करते हुए, श्रवण , जो की भारतीय सेना में सिपाही था, बहुत हर्षित हो रहा था।

"माँ-पिताजी, मैं घर आने से पहले एक बात कहना चाहता हूँ," श्रवण ने कहा

"हाँ-हाँ , कहो " पिताजी ने खुश होते हुए कहा।

"वो बात ऐसी है .........की.......... मेरा एक दोस्त है जिसको मैं अपने साथ घर लाना चाहता हूँ "




"हाँ............ ज़रूर लाओ, हमें भी काफ़ी अच्छा लगेगा उससे मिलकर," पिताजी ने कहा




"लेकिन ............ एक बात और है......... जो मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ की मेरा दोस्त युद्घ में काफ़ी घायल हो चुका है और बारूदी सुरंग पर पाँव पड़ने से वो अपना एक पैर और एक हाथ खो चुका है उसके पास कहीं जाने के लिए कोई जगह भी नहीं है मैं चाहता हूँ की वो हमारे साथ रहे "




" हमें यह जानकर बहुत दुःख हुआ बेटे, उसे अपने साथ ले आओ, शायद हम उसको कहीं रहने के लिए मदद कर सकें " पिताजी ने दुःख भरे स्वर में कहा




" नहीं ! पिताजी....... मैं चाहता हूँ की वो हमेशा के लिए हमारे साथ ही रहे"




"देखो! बेटा, "पिताजी ने कहा , " तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो ऐसा अपाहिज आदमी हमारे ऊपर बोझ बन जाएगा......... और......... और....... हम उसकी ज़िन्दगी को ढो नहीं सकते। हमारी भी अपनी ज़िन्दगी है, और उसमें हम किसी को हस्तक्षेप करने नहीं दे सकते मेरा कहा मानो तो तुम घर चले आओ और भूल जाओ उसे वो अपना रास्ता ख़ुद तलाश कर लेगा "




इतना सुन कर श्रवण ने फ़ोन रख दिया और काफ़ी दिनों तक अपने माता - पिता के संपर्क में नहीं रहा




एक दिन श्रीनगर से सेना पुलिस का फ़ोन श्रवण के माता-पिता के पास आया की बिल्डिंग की छत से गिरकर श्रवण की मौत हो गई सेना पुलिस का मानना था की श्रवण ने आत्महत्या की है दुखी माता-पिता श्रीनगर पहुंचे श्रीनगर पहुँच कर उनको श्रवण की पहचान करबे के लिए मुर्दाघर ले जाया गया उन्होंने श्रवण को तो पहचान लिया , लेकिन, उन्होंने वो देखा जो उन्हें मालूम नही था। श्रवण का एक हाथ और एक पैर नहीं था.............








(मेरी यह लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक अख़बार "दैनिक जागरण" के साहित्यिक पृष्ठ 'पुनर्नवा' में सन २००६ में प्रकाशित हो चुकी है और अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरुस्कार प्राप्त कर कर चुकी है : देखें हंस हिंदी मासिक पत्रिका नवम्बर २००६ .... )








महफूज़ अली

शनिवार, 27 जून 2009

कुछ पहलू........कुछ फलसफे...और कुछ कवितायें !!

१.

मैंने एक खिले हुए
फूल को तोडा था,
तो मैं तड़प गया था॥

मैंने नोचे थे पंख
एक परिंदे के
तो मैं बिलख उठा था॥

मैंने छेडा था एक
मोती की माला को
तो मैं बिखर उठा था॥
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२.

आज अगर मैं सोचता हूँ
तो बीच में कल आ जाता है
कल कल था
और कल कल होगा
यह याद आ जाता है॥
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३.

मैं तुमसे मिलूंगा
किसी किताब के पन्नों में
नाम अपना दर्ज
होने से पहले,
यह मेरा वायदा है
पर ठीक ऐसा ही हो
जैसा मैं कह रहा हूँ
यह कहना आज शायद
थोड़ा मुश्किल है,
पर कल ?????
नामुमकिन ज़रूर होगा॥
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४.

ख़्वाबों में झांकता हूँ
और गाता हूँ अपना ही राग
लंबे लंबे डगों से
लांघता हूँ दीवारों को
और
खोजता हूँ
उन खोये हुए
पलों को॥
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महफूज़ अली

सोमवार, 22 जून 2009

छू लिया आसमान!!


उसने पूछा की

'आसमान छूने जा रहे हो?'

मैंने कहाँ 'हाँ!!! '

उसने कहा .....

'छू लेना हाथ बढ़ा के

आसमान को '

और मुझे बताना

कैसा था?

फूल सा नाज़ुक

या

रुई सा नरम?


ले आना अपने साथ

थोड़ा सा अहसास

और

कराना महसूस

मुझे......


और मेरा ...............

आसमान....

अब मेरे पास है॥




महफूज़ अली

शनिवार, 20 जून 2009

अजनबी सी लगीं नहीं!!


कभी किसी महफिल

में तुम दिखीं नहीं,

कभी परियों के किस्सों

में भी तुम मिली नहीं।

न जानें क्यूँ फिर भी

मुझे तुम कभी

अजनबी सी

लगीं नहीं॥





महफूज़ अली
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