इस क़दर टूटा हूँ कि
रोना चाहता हूँ.
आत्मा की पुक़ार खींच रही है
ख़ुद से बातें करना चाहता हूँ.
घना अँधेरा,
जिसकी दुनिया नहीं
खिड़की किनारे बैठ कर,
सूनी आँखों से,
सुनता रेलगाड़ी की आवाज़
अनमना सा,
मंज़िल को पाना चाहता हूँ.
गाता उदासी के गीत
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
शिव खेडा "आप जीत सकते हैं"
फ़िर सोचता,
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर....
115 टिप्पणियाँ:
अरे वाह !! महफूज़ मियाँ,
एक और रंग नज़र आया आपका...हुजुर आपके कितने रंगे हैं ?
आपने तो गज़ब की कविता लिख दी है, बहुत ही सुन्दर,
हैरान हूँ , ये भाव, ये शब्द, ये प्रवाह और इसकी काव्यात्मकता देख कर...
सच में टिप्पणी देने में खुद को श्रीहीन महसूस कर रही हूँ...
आपकी कविता तो बस दिल में उतरती ही चली गयी ..बस...
wowwwwwwwwww BEAUTIFUL ...बहुत ही सुन्दर कविता है ..
फ़िर सोचता,
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर..
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
Aaj ki kavita bahut hi pasand aayi.. ekdam sachche dil se bhai.. :)
chatka bhi diya hai yaad se bina kahe.. :)
शब्द नही मिल रहे है प्रशन्सा के . अदा जी की बात को मेरी माने .{पुर्लिंग मे }
दिल से निकली बात दिल को छू गई.
बहुत खूब भाई
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 06.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
most impressive lines.
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
खुद को दुहराने की तमन्ना और फिर टूटन कैसी?
टूटता तो वह है जो खुद को तलाश नही पाता
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार..मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है..चाक पर..
....कुछ नया सा...
लीक से हटकर...
अच्छी....बहुत अच्छी कविता.
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
अंतर्द्वंद को बहुत खूबसूरत शब्दों में बयां किया है.....सच है कभी कभी ऐसी ही स्थिति होती है....अतीत और आगत में मन उलझा रहता है...सुन्दर अभिव्यक्ति....आखिरी पंक्तियों में खुद से जुड़ा महसूस कर रही हूँ...आभार
is kavita mein har kisi ki soch ka sundar aks hai..
निश्चित रूप से ये कविता नहीं है ..ये तो आपके अंदर से आती आवाज है ..जिसे आपने शब्द दे दिये हैं वो भी ऐसे कि सीधे हमारे भीतर तक पहुंच गए आप ..अभिव्यक्ति ..इससे बेहतर तो और नहीं हो सकती ...
अजय कुमार झा
इस क़दर टूटा हूँ कि
रोना चाहता हूँ...
मैं कुछ नहीं कहूँगा और न ही टिप्पणी करूँगा।
क्या बात है महफूज भाई आजकल एक दम डूब कर लिख रहे हैं , बहुत खूब लगी आज आपकी रचना ।
Mai nishabd hun...aur kya kahun?
सीधे अन्दर से अन्दर तक पहुँचती आवाज़ ।
दिल के गुबार ऐसे भी निकलते हैं।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
Bhavnaao ki kashmakash ko khubsurati se shabdo me sanjo kar pesh kiya aapne ...sidhe dil ki gahraiyon me utarai ye rachana aapki.Aaj aapke andar chupe Aatmchintak se bhi parichya hua jo antardwand ko aadhyatm tak lejane ki kshamata rakhata hai....Bahut bhadiya!!
Bahut hi sundar kavita...
किसी पोस्ट पर देर से आने से ये नुक्सान होता है कि जो आप कहना चाहते हैं...वो कोई और कह चूका होता है ....
सीधे दिल से निकली हुई आवाज़ लगी मुझे ये तो...
तस्वीर को देखें या. कविता को...
एक गाना याद हो आया..
दुनिया पागल है..
या फिर मैं...
दीवाना............
बहुत ही बढिया प्रस्तुति .. हमेशा की तरह ही अच्छी लगी ये रचना भी !!
kya bat hei janab....aj udasi ka rang....gajab bhai....
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
मंज़िल को पाना चाहता हूँ.
गाता उदासी के गीत
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
bahut hi adbhut ...bahut hi din baad aisi kavita padhane mili ..bahut hi dard aur kum alfaz ..mano her alfaz kuch kaheke ja raha hai dard deker.."
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
बहुत खूब .....सुन्दर अभिव्यक्ति
महफूज़ ..यह उस कवि की अभिव्यक्ति है जो तुम्हारे भीतर कुछ करने की राह देख रहा है , यह उस मनुष्य की पुकार है जो इस जन्म को अकारथ नहीं जाने देना चाहता , यह उस बेटे की पुकार है जिसने अपनी जननी को सिर्फ एक औरत के रूप मे नहीं बल्कि इस दुनिया का निर्माण करने वाली जगत जननी के रूप मे देखा है , यह उस इंसान की पुकार है जिसने इंसानियत का अर्थ किताबों मे नहीं खोजा है बल्कि उसे ज़मीनी सच्चाइयों से जाना है ।
बस एक बात खटक रही है
" ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
शिव खेडा "आप जीत सकते हैं"
तुम मे वह सामर्थ्य है कि यह किताब पढ़ने की तुम्हे ज़रूरत नहीं । तुम अपने आप को पढ कर ही अपने आप को गढ़ सकते हो ।
यह कविता के भाव पर मैने समीक्षा की ,शिल्प पर अभी बात करना मुनसिब नही है । वह तो धीरे धीरे आयेगा ।
इस क़दर टूटा हूँ कि
रोना चाहता हूँ.
आत्मा की पुक़ार खींच रही है
ख़ुद से बातें करना चाहता हूँ.
ye gaana yaad aa raha hai is sundar rachna par ----
ye dile naadaan aarzoo kya hai.......
jab bhi milti hai ajnabi si lagti hai ....
सच में, कभी-कभी जीवन की आपाधापी में हम खुद से बहुत दूर निकल जाते हैं. जब अपनी याद आती है, तो हम सोच में पड़ जाते हैं कि हम क्यों और क्या हैं? तब सिर्फ़ अपने साथ रहना अच्छा लगता है...आपकी कविता ऐसे ही मनोभावों को पूरी मन की गहराई से व्यक्त करती है. दिल से निकली ऐसी बात सिर्फ़ और सिर्फ़ सच होती है...एक सच्ची रचना.
बेहतरीन लिखा है महफूज़ मियां.. ये लाइन तो बहुत अच्छी बन पड़ी है..
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
सचमुच मां के बिना तो संसार में जीने की कल्पना भी नहीं की जा सकती
राजीव तनेजा जी कहते हैं कि "किसी पोस्ट पर देर से आने से ये नुक्सान होता है कि जो आप कहना चाहते हैं...वो कोई और कह चूका होता है ...." और मैं कहता हूं कि यह फायदा है.. आप सीधे-सीधे उसे कापी-पेस्ट कर सकते हैं.. ;)
वैसे हमने भी एक कमेंट कापी-पेस्ट किया है.. "nice" :P
:D
suni bhee achchha laga
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार..मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है..चाक पर..
....कुछ नया सा...
लीक से हटकर..
भाई महफूज जी, मान गये कि आप तो वाकई में हर कला में निपुण हैं। चाहे वो कथा-कहानी हो, गजल हो, कविता हो या अन्य कोई लेख...हरेक में आपका एक अलग ही रंग दिखलाई पडता है... कविता सचमुच बहुत बढिया लगी!
सचमुच अलग किस्म की कविता है ....
जब ह्रदय के उदगार बिना लागलपेट के निकलते हैं तो इस तरह की कविता स्वतः प्रस्फुटित होती है ....
सोच ...काश माँ जिन्दा होती ....तो जीवन सुन्दर होता
इस पंक्ति ने भावुक कर दिया ...
जहाँ सांस भी थिरकती है चाक पर ... दोहराता खुद को ...
निष्कपट मन को उतार कर रख दिया शब्दों में ....!!
JA RAHAA HOON MAIN TO
JOR JOR SE RONE KE LIYE
KISII KONE MEN BAITH KAR
AUR AAPNE TO PHOTO BHII
SHAAYAD
MERI HII LAGAYII HAI
AAPNE PHOTO BHII
SHAAYAD
MERI HII LAGAYII HAI
SUCH MEN YAR , EKDUM DIL KO CHHOO LIYA.
PYAR KARNE WALON KA
PYAR DENE WALON KA
SHAYAD YEHII HAL HOTA HAI
नये अन्दाज में लिखी गयी कविता !
सुकून मिल रहा है पढ़कर इसे ! आभार ।
अच्छी कविता.
....बधाई.
कभी सुख, कभी दुख,
यही ज़िंदगी है...
ये पतझड़ का मौसम,
घड़ी दो घड़ी है,
नए फूल कल फिर,
डगर में खिलेंगे,
उदासी भरे दिन,
कभी तो हटेंगे...
जय हिंद...
बहुत सुन्दर महफूज भाई ! आपकी इस रचना की शुरुआती लाइन "कभी-कभी मन बहुत उदास होता है" देखी तो उसी पर मैंने भी कुछ रच डाला, उसे भी पढ़ लीजिएगा !
इतनी टिप्पणियां आने के बाद तो कुछ शेष ही नहीं बचा, बस बधाई, ऐसा ही लिखते रहे। पर उदास न हो।
jindagike har pahlu ko bakhubi ubharte hai aap .....bas aisi hi khubsurat ghade ki tarah sundar rachna .....
नन्हे चूजे !
जो हमारे पास नही होता मन उसे ढूढता रहता है .
माँ ? माँ को खोजते हो ?
कविताओं में ,कहानियों और कभी तुम्हारे आर्टिकल्स में हर कहीं पाती हूँ मैं उन्हें .
जो गैर औरत में भी 'माँ' को देखता है ,उससे माँ कैसे दूर हो सकती है ,मेरे बच्चे !
रात का सन्नाटा हमे खुद को पढने का मौका देता है ,
नींद अगली सुबह ताजगी दे जाती है ,वैसे ही रात के गहरे सन्नाटे में खुद से मिलना
जीवन को सही,नई राह दिखा जाता है .
बहुत अच्छा लिखते हो तुम ,बाबा !पर..........
उदास ना हो .
एक गाना है ,मिले तो सुनना ,मेरी ओर से तुम जैसे प्यारे बच्चे के लिए
' कोई भी फूल नही इतना खूबसूरत है ,है जितना ये मुखड़ा तेरा ,मुस्करा लाडले मुस्करा .....'
Just Awesome..!!! iss se accha aur koi likh hi nahi sakta...
this one is really good !
लाजवाब महफ़ूज़!खुदा महफ़ूज़ रखे तुम्हे हर बला से,हर बला से।
बहुत खूब....क्या लिखते हो मिंया.
अभी अभी आपका जीन वाल लतिफा पढ़ कर आया था, यहाँ कविता...कित्ते रंग है भाई आपके. खूब.
मिस्टेक हो गई गल्ती से. लतिफा आपका नहीं था. :) अभी रोने धोने की बात करोगे तो क्या टिप्पणी करेंगे? कविता वैसे भी कम समझ आती है. फिर भी अदाजी की टिप्पणी को हमारी टिप्पणी माना जाय. हमारे पास भी शब्द नहीं है.
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर..
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
जहाँ सांस भी थिरकती है..चाक पर..
....कुछ नया सा...
लीक से हटकर...
अच्छी....बहुत अच्छी कविता.
sundar prastuti antardwand ki.
ओफ़्फ़ओ… ये जलवे महफ़ूज़ भाई!
गोरखपुर से जब जब लौटते हो नया कलेवर मिलता है!
क्या राज़ है भाई???
mahfooz bhai ...
bahut der se thahra hua hoon is kavita par... kya kahun kuch samjh nahi aa raha hai ... pahli baar padhi to aansu gale me fansne lage... thoda ruk kar phir padha aur phir padha ...
ye sirf aapki hi kavita nahi hai , ye har us emotional bande ki kavita hai ....jo jeevan ko poornta ke saath jeena chahta hai....
aksar jeevan ke safar me chalte chalte aise hi maayus pal aa jaate hai jo man ko dukhi karte hai aur tab lagta hai ki kya kiya jaaye ..
tab hamesha ki tarah maa hi yaad aati hai .. aur jab kuch nahi ho paata to man ek antaryaatra par nikal padhta hai ....
aapki is kavita ko aur aapke kaviman ko mera laakho salaam ..
aapka hi
vijay
ऐसी मनःस्थिति आती है, कोई हल नज़र नहीं आता, माँ........उसकी हर बात याद आती है......
गहरे भावों को व्यक्त किया है
सुन्दर भावाभिव्यक्ति!
"कभी-कभी मन बहुत उदास होता है. कारण ख़ुद को भी नहीं पता होता."
जिंदगी कैसी है पहेली हाये ....
मिट्टी के लोंदे से जैसे कुम्हार बर्तन गढ़ता है, उसी तरह आपने इस कविता को शब्दों से नहीं, दिल के अंदर के बिखरे पड़े भावनाओं से गढा है.......बहुत सुन्दर......
अरे वाह ......!!
मिटटी तो तैयार है अब आप घड़ ही लीजिये .....अरे शादी का घड़ा ......आपको अकेलापन खलने लगा है अब ..........!!
अरे अरे मर्द वो है जो इन हालात से लडे, मै भी पिछले कई समय से कुछ ऎसे ही हालात से गुजर रहा हुं, कई बार इस कदर टुटा की हिम्मत नही रही ऊठने की, लेकिन हर बार नयी हिम्मत ले कर ऊठ ओर हालात को ललकार आओ ओर फ़िरे से लडो मेरे संग....ओर हर बार मै जीता. लडो ओर वीर योद्धा बनो
बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत खुबसूरत भाव हैं आपकी इस रचना के महफूज जी शुक्रिया
भाई पहली बात तो क्षमा चाहता हूँ इतना देर से पहुँच पाया और दूसरी बात ढेर सारी बधाई इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए...बहुत दिनों से सोच रहा था की महफूज भाई क्यों चुप बैठे है और कोई रचना नही आ रही और आज मेरे इस प्रश्न को उत्तर मिल गया की वो चुप नही बैठे हैं बल्कि अपनी धमाकेदार और नई अभिव्यक्ति की संरचना कर रहे है..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....छोटे भाई का बधाई स्वीकारें..
महफूज़ जी ... बहुत अच्छा लिखा है... अक्सर जब मन उदास होता है तो माँ की याद आती है ... दिल से लिखी क्विता .. अलग अंदाज़ की कविता ...
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
बहुत अच्छी, दिल को छूने वाली।
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
kahan jaa rahe ho miyaan???
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
तो जीवन होता सुंदर और भी सुंदर
ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
शिव खेडा "आप जीत सकते हैं"
ओह!! यह भीतर का महफूज़ है...सच!!
सहज कविता। आप की श्रेष्ठतम। ब्लॉग जगत की जिन कविताओं को पढ़ कर छ्न्दबद्धता की व्यर्थता का बोध हुआ है उनमें यह एक है। भाव जब उमड़ें तो स्वयंसिद्ध कविता का अवतरण होता है - बन्दिशें मायने नहीं रखतीं।..
प्रवाह पर मुग्ध हूँ - सोच रहा हूँ कि आप को भी उन की श्रेणी में रख दूँ जिनसे मुझे सात्विक ईर्ष्या है - किशोर, संजय, आर्जव, दर्पण, अपूर्व, हिमांशु, ओम , दीपक और कभी कभी अदा-वाणी... जाने कितने ! आज गिन रहा हूँ तो पाता हूँ कि हिन्दी ब्लॉगरी की कविताई कितनी समृद्ध है ! ..गिटार बजाना आता तो शायद धीमी धुन में इसे गुनगुनाता अकेले .. उदासी भी एक भाव है जो कभी कभी बहुत आदर माँगती है- आप ने उसका मान रख लिया..
आप उदास हैं और मैं खुश हो रहा हूँ - शायद आप समझ रहे होंगे।
एक कवि की अच्छी और सुंदर रचना,
एक इंसान का दर्द समझता हूँ,
तुमने शब्दों में जो बयाँ किया,
अगर फुर्सत हो तो
The monk who sold his ferrari पढ़ना दोस्त, मैं तो हिन्दी रूपांतरण संन्यासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी पढ़ रहा हूँ।
"इस क़दर टूटा हूँ कि रोना चाहता हूँ....: महफूज़" शीर्षक पढ़कर जो ख्याल मेरे मन में आया था कविता का भाव उससे अलग निकला - अंतहीन अन्तर्द्वन्द को समेटे सच्ची और अच्छी रचना जो हर व्यक्ति की सोच और जीवन का हिस्सा होती हैं. ये पंक्तियाँ विशेष लगीं:
"जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर.."
सुन्दरतम !!!
.
.
.
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर....
मित्र महफूज,
पता नहीं कोई अनंत यात्रा पर जाता भी है या नहीं... पर भिड़ना जरूरी है...अतीत और आगत से...अपने काम को अंजाम देते हुए... यही तो जिंदगी है!
आभार!
आपकी इस कविता में मीन-मेख निकालना
संभव नहीं है , फिर भी आपकी बात
रखना चाहूँगा ---
'' ख़ुद को गढ़ता पढ़कर
शिव खेडा "आप जीत सकते हैं"
----------- यहाँ '' शिव खेडा '' बलात लाये हुए
लग रहे हैं , ये मेरी नितांत निजी बात है !
कोई इससे इत्तफाक न भी रखे तो भी कोई
समस्या नहीं !
........ सुन्दर कविता ! आभार !
"कभी-कभी मन बहुत उदास होता है. कारण ख़ुद को भी नहीं पता होता. हम रोना तो चाहते हैं, लेकिन आंसू नहीं निकलते, मंज़िल सामने तो होती है लेकिन रास्तों का पता नहीं होता. विचारों का द्वंद्व दिल-ओ-दिमाग़ में चलता रहता है लेकिन विचारों में ठहराव नहीं होता. "
mahfooz ji aisa purusho k saath bhi hota hai...hairan hu.....per aapko ye rog kab se kyu kar lag gaya? (ha.ha.ha.)
aapki rachna bahut gehri hai...acchhi he.
aapne bahut sundar likhaa hai ji...
sach mein ise coment maaniye..
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
ग़ज़ब के प्रवाह की कविता ... मन के प्रवाह को इसने कहीं बहुत गहरे छुआ. शुभकामनाएँ.
जाने कैसे गढ़ता कुम्हार
मिटटी के लोंदे को
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक
अपलक, मृत्यु से पहले
करके पापों का अपहरण
भिड़ता कहीं,
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर..
bahut baar padhi kavita .... har baar man ko sakun bharti chali gayi
gahri soch liye hue
bahut bhaav purn kavita
यह सृजन का आनंद ही है जो कुम्हार को मिलता है ठीक मां की तरह जो बच्चे को जन्मती है और संवारती भी है ।
mahfooz ...shikayat karte ho ki hum nahi aate...aate hain lekin traffic jam ke karan chale jate hain
हमें और चिंटू दोनों को बड़ी अच्छी लगी आपकी कविता!
शुभकामनाये!!
आत्मा की पुक़ार खींच रही है
ख़ुद से बातें करना चाहता हूँ.
बहुत सुन्दर रचना!
वाह महफूज़ जी वाह दिल खुश कर दिया दिल को बहुत गहराई तो छू गयी आपकी ये कविता
अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर...
हुम्म्म तो आज कल उदास हो तभी कम लिखते हो? कई दिन बाद पोस्ट देखी है। कोई बात नही बेटा कभी4 कभी होता है सब के साथ होता है। मगर तुम तो बहादुर बेटे हो। और बहादुर कभी निराश उदास नही होते। कविता दिल को छू गयी। आगे निशब्द हूँ। बहुत बहुत आशीर्वाद। कुछ दिन छुट्टी पर थी इस लिये देर से आयी।
मंज़िल को पाना चाहता हूँ.
गाता उदासी के गीत
सोच! काश! माँ ज़िंदा होती?
एक साथ अनंत दिलो में उठने वाला दर्द !
काश माँ जिन्दा होती !!!!!!!!
तो वैसे ही मंजिल मिल जाती !
बहुत सुंदर कविता है ! बधाई !!!
mehfooz sir,so many thanx to you..i m thankful to you!! :)
व्यस्तता ज़्यादा थी महफूज़ भाई , इसीलिए आपकी यह कविता देर से पढ़ पाया ....सचमुच यह कविता नही भावनाओं की प्रासंगिकता है ....शब्द और भाव सुन्दर हैं...बहुत अच्छी कविता, ढेर सारी शुभकामनाएँ !
प्रभावी प्रवाह .....कविता शुरू होती है, अपने अंदर चल रहे कुछ ऐसे प्रश्नों के साथ जिनका उत्तर सामान्य जन के पास संभव नहीं, और कविता विराम पाती है आध्यात्मिकता के साथ .......
बहुत बहुत बधाई महफूज़ !
जहाँ सांस भी थिरकती है
चाक पर..
दोहराता ख़ुद को
स्वार्थ खोजते कुछ
करता अपने को सार्थक,
बहुत ही गहरे भावों की प्रस्तुति, बेहतरीन रचना के लिये बधाई सहित आभार ।
ek behtarin bhaaw... aksar esa ek daur aata hai, jab kuch samajh nahi aata aur tab lagta hai kahi se Maa aa jaaye aur apni Ungli pakad is andhere se bahar nikaale... hai n bro ?
khayal bahut shandaar hai lekin aap kuch jagah track se bhatak gaye khair bahut dino baad man ke antas ko chuti koi rachna padhne milee.
shubhkamnayen.
अच्छे बच्चे rote नहीं...बहुत सुन्दर लिखा...बेहतरीन रचना !!
______________
"पाखी की दुनिया" में देखिये "आपका बचा खाना किसी बच्चे की जिंदगी है".
अपने पाठको को आप बहुत प्यारे हैं अपनी कविता की तरह ! मेरे ब्लॉग पर भी एक नजर डाल लीजियेगा !
महफूज़ भाई
भाव प्रधान रचना ,
अच्छी लगी
इस लाइन पर ध्यान गया.
खिड़की किनारे बैठ कर,
सूनी आँखों से,
सुनता रेलगाड़ी की आवाज़
-विजय तिवारी "किसलय"
और कितनी ही बार सामने सिर्फ रस्ते होते हैं...
सिर्फ रस्ते...
पर मंजिल का पता नहीं होता...
mahfuz bhai umda rachna
abhar.......
सुन्दर कथ्य...बेहतरीन प्रस्तुति...बधाई.
__________________
"शब्द-शिखर" पर - हिन्दी की तलाश जारी है
घना अँधेरा,
जिसकी दुनिया नहीं
खिड़की किनारे बैठ कर,
सूनी आँखों से,
सुनता रेलगाड़ी की आवाज़
अनमना सा,
मंज़िल को पाना चाहता हूँ.
गाता उदासी के गीत
-----------------------------
इन पंक्तियों में कविता साकार हुई है ...
काश के दुनिया से ऐसे गम
सदा के लिए दूर हो जाएँ
और माँ और ' खुदा ' = दोनों एक हैं -
- दोनों के बगैर , संसार का सार नहीं
स्नेह,
लावण्या
mere $50,000 wapis karo
"अतीत और आगत से
अपने काम को अंजाम देते हुए
और
निकल पड़ता हूँ किसी अनंत
यात्रा पर...."
बहुत खूब !!!
कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/
AUR YE 100WIN TIPPANI SAWAAL KE SAATH KI APNE APNE BLOG SE QUR-AAN KA WIDGET KYUN-KAR HATA DIYA....KYUN HATA DIYA.....????????????????????????????????????????????????????????????????????????????
APNE KUTTE KE SAATH WALA PHOTO AAP HAMARI ANJUMAN PAR BHI DEKHEN..... ZAROOR DEKHEN....
कुत्ता रखना नापाकियों में से समझा जाता है, किन्तु यदि मुसलमान केवल घर की रखावाली के लिए कोई कुत्ता रखे, और उसे घर के बाहर रखे और उसके परिसर के अंतिम भाग में किसी जगह रखे, तो वह अपने आप को किस प्रकार पाक (पवित्र) रखेगा ? और जब वह अपने आप को साफ-सुथरा रखने के लिए मिट्टी (धूल) या कीचड़ न पाये तो इस का क्या हुक्म है ? और क्या मुसलमान के लिए अपने आप को पाक साफ रखने के लिये कोई विकल्प उपलब्ध है ? और कभी कभार वह आदमी दौड़ने के लिए कुत्ते को अपने साथ लेकर जाता है, और उसे थपकता और चूमता है ...
@ SALEEM KHAN
You are using photographs of Mahfooj
He is person of very high decorum
BUT
You are nonsense & duffer
I give marks to Mahfooj +100
and marks to saleem -1000
खुशदीप जी ने आपके बारे में एक खुशखबरी दी है जी
हार्दिक मुबारकबाद स्वीकार करें
प्रणाम
Naye post ka intzaar hai.
aap to shabdon ke jadoogar ho..
ab hum kya kahen ji...
बहुत खुबसूरत कविता है ! जिस तरह कुम्हार गीली मिटटी से बर्तन बनता है, उसी तरह हमारे माता पिता भी हमें इस लायक बनाते हैं कि हम दुनिया का सामना कर सकें और किसीके कुछ काम आ सकें ।
टिप्पणियों का सैकड़ा पार करने के लिए बधाई। शीघ्र ही हजारी भी बनो - इसी में हिन्दी ब्लॉगिंग का बेहतर भविष्य दिखलाई दे रहा है।
लाजवाब रचना...
nice poem
all the best
vandana
nice poem
shubhkamnayen
vandana
बहुत खूब..आपकी रचनाएँ पढ़ीं.बहुत अच्छी हैं.आपकी कहानियां पढना अभी बाकी है.खुशनसीबी मानती हूँ की आप जैसे क्रिएटिव और परिपक्व लेखकों की सार्थक रचनाएँ पढ़ पा रही हूँ.मेरी शुभकामनाये.उम्मीद करती हूँ की आगे भी आपके लेख पढने को मिलेंगे
वंदना
बहुत खूब..आपकी रचनाएँ पढ़ीं.बहुत अच्छी हैं.आपकी कहानियां पढना अभी बाकी है.खुशनसीबी मानती हूँ की आप जैसे क्रिएटिव और परिपक्व लेखकों की सार्थक रचनाएँ पढ़ पा रही हूँ.मेरी शुभकामनाये.उम्मीद करती हूँ की आगे भी आपके लेख पढने को मिलेंगे
मेरी कविता पर टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद
वंदना
kabi kabhi man bahut udaas hota hai...bahut achchi kavita hai.sach hai khush aur sukun pane ke liye sachmuch bahut baichaini hoti hai tab lagta hai ki kaash ....aisa hota to kitana achcha hota ...jaise aapane maa ka zikra kiya hai ya shiv kheda ki kitab ke baare main....jahan sans bhi thirakati chaak par dohrata khud ko ...great....bahut khub ....kya koi kavita sankalan bhi publish hua hai?
गहरे भावों को व्यक्त किया है, आपने ||
बहुत प्यारी रचना ||
बहुत खूब !!
hi....mahfoojji..thanks a lot...sochati hoo aisa kaun sa word,aisa kaun sa sentence likh doo, jo aapke aur aapki abhivyakti ke anukul ho . dictionary ke saare word chote lag rahe aapki pratibha ke saamne, really u r a great and have nice thinking.thanks.
एक टिप्पणी भेजें