जद्दोजहद में शहर-ऐ-लखनऊ: एक कविता
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आगे से देखा है,
कच्ची पक्की पगडंडियों के आस-पास हँसते तमीज़ को
आज के लखनऊ ने सिमेंटी संस्कृति में बदल दिया
तहज़ीब मिटटी की दीवार वाले मकान के घुप्प
अँधेरे में खामोश रहती है या ऊँघ जाती है
जब कभी हमारे भीतर वात्सल्य भरता है,
गोमती परिवर्तन चौक तक आ जाती है।
और कच्ची दीवारें भरभरा कर बाढ़ के पानी में
घुल जाती है।
पुराने लोगों को दुर्घटना मानता शहर
खुद के पैरों तले कुचला गया है।
हम सब उलटे खड़े हैं
और पीठ की तरफ से इतिहास को पहचानने के लिए
आज के दोगले चरित्र के भीतरी स्वरुप को
हम रात के सन्नाटे से ढ़की लम्बी
सड़क पर जलती-बुझती लाइट के
सफ़ेद अँधेरे में छुपा रहे हैं,
अब शहर के जिस्म पर लूट का अनुशासन है
सामान की तरह इंसान की खरीद-फरोख्त जारी है
षड्यंत्र...अस्पताल और जनसँख्या के व्यक्तित्व की
विशेषता बन गया है।।
(c) महफूज़ अली