Kashmir: Kherishu in Land of turbulence... Welcoming, Courtship,
Honeymooning and Varishu
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*"Welcome* *to Kashmir*" this I had a warm welcome by CRPF constable Mangal
Singh at Srinagar airport exit gate last year. It was my first visit to the
Sta...
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जब मैं खोया हुआ रहता हूँ,
एकटक छत को घूरता रहता हूँ
अपने आसपास से अनजान
और काटता रहता हूँ
दांतों से नाखून.
नहीं सुनाई देती है
कोई भी आवाज़
कोई मुझे थक हारकर
झिंझोड़ता है और पूछता है
क्यूँ क्या हुआ?
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
बुधवार, 25 नवंबर 2009
मेरी जंग: वक़्त का सबसे बड़ा झूठ...
जब मैं खोया हुआ रहता हूँ,
एकटक छत को घूरता रहता हूँ
अपने आसपास से अनजान
और काटता रहता हूँ
दांतों से नाखून.
नहीं सुनाई देती है
कोई भी आवाज़
कोई मुझे थक हारकर
झिंझोड़ता है और पूछता है
क्यूँ क्या हुआ?
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
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मेरे बारे में
- डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali)
- पेशे से प्रवक्ता और अपना व्यापार. मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम्.कॉम व डॉ. राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय,फैजाबाद से एम्.ए.(अर्थशास्त्र) तथा पूर्वांचल विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि ली है. I.G.N.O.U. से सन २००५ में PGJMC किया और सन् 2007 में MBA किया. पूर्णकालिक रूप से अपना व्यापार भी देख रहा हूं व शौकिया तौर पर कई कालेजों में भी अतिथि प्रवक्ता के रूप में अपनी सेवाएं देता हूं. पढ़ना और पढ़ाना मेरा शौक़ है. अंग्रेज़ी में मुझे मेरी कविता 'For a missing child' के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. मेरी अंग्रेजी कविताओं का संकलन 'Eternal Portraits' के नाम से बाज़ार में उपलब्ध है,जो की Penguin Publishers द्वारा प्रकाशित है. अंग्रेजी में मैंने अब तक क़रीब 2600 कविताएं लिखी हैं. हंस, वागर्थ, कादम्बिनी से होते हुए ...अंतर्राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका 'पुरवाई' जो की लन्दन से प्रकाशित होती है ...में प्रकाशित हुआ, तबसे हिंदी का सफ़र जारी है... मेरी हिंदी कविताओं का संकलन 'सूखी बारिश' जो की सन् 2006 में मुदित प्रकाशन से प्रकाशित है... मैं करता हूं कि मेरा ब्लॉग मेरे पाठकों को ज़रूर अच्छा लगेगा... आपकी टिप्पणियां मेरा हौसला बढ़ाती हैं. इसलिए मेरी रचनाएं पढ़ने के बाद अपनी अमूल्य टिप्पणी ज़रूर दें.मेरा प्रमुख ब्लॉग 'लेखनी’ है.
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84 टिप्पणियाँ:
बहुत ही सहज और खूबसूरत अंदाज़े बयान है तन्हाई को ज़ब्त करने का...
और एक बात इस ज़द्दो-जहद से तो हम सभी गुजरते हैं....
आपकी कविताओं कि सबसे बड़ी खासियत एक बार फिर बता दूँ.....हम सभी खुद को जुड़े हुए पाते हैं...
बहुत सुन्दर लगी आपकी रचना...
बधाई....
खूबसूरत रचना के लिए,
प्यारी सी बधाई!
खुद से लड़े जानी वाली जंग ज़्यादा मुश्किल होती है.
आप जल्दी ही ये जंग जीत लें, यही कामना है.
बढ़िया रचना है भाई.
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
"आज हर व्यक्ति के अंदर कुरुक्षेत्र का मैदान सजा हुआ है स्वयं से जंग इसी तरह लड़ी जाती है"
सुंदर रचना-आभार
अंत की उम्मीद ऐसी नहीं थी... कविता और सही जा सकती थी.. मैं तो कहूँगा इसे एडिट की जरुरत है यही से तो इसे बढ़ना चाहिए जहाँ ख़तम हो रही है.. .
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .. सचमुच ये झूठ सभी बोलते हैं .. पर आप जंग जीत लेंगे .. हमारी शुभकामनाएं साथ रहेंगी !!
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
खुद न शामिल होते हुए भी जंग लडने की यह अदा बहुत सुन्दर है
वाकई तन्हाई मे हम खुद से भी तो एक जंग लडते है.
ठीक है आत्माभिव्यक्ति की कला अब परवान चढ रही है । इस अहसास को सामाजिकता के साथ और जोड़न ज़रूरी है तब यह मुकम्मल होगा ।
सबसे पहले दांतों से नाख़ून काटना बंध करो ..( मुझे भी किसी ख़ास ने यह कहा था, so I stoped it[:)])...वक़्त की लड़ाई और अंतर्मन्न की आवाज़ कभी झूठ नहीं, उससे हरेक झुझता है, यही सत्य है ....!
Take Care Bro...
हम सब के अन्दर एक जंग का मैदान होता है और ये जंग हम सभी लड़ते हैं. अपने अंतर्मन के द्वन्द को अच्छी तरह व्यक्त किया है आपने....आप अपनी जंग जल्दी ही जीत जाएँ यही कामना है.वेसे मैं भी सागर साहेब से सहमत हूँ..वाकई जहाँ अंत हुआ वहां से कुछ और बढ़ना चाहिए था.
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
rरचना बहुत ही अच्छी है मगर मुझे अपने बेटों की कलम से उदासी भरी रचना अच्छी नहीं लगती। खुश रहा करो दुख सब की ज़िन्दगी मे आते रहते हैं तुम तो बहुत बहदुर हो फिर ऐसी उदासी भरी रचनायें क्यों? वैसे लिखते बहुत खूब हो बहुत बहुत आशीर्वाद आशा है अब सेहत भी ठीक होगी
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
क्या बात है महफूज भाई , बड़ी ही खूबसूरती से आप ने वह हालत बयाँ की है जिसे हम सब भी सोचते है । हम भी ऐसे वक्त से कभी-कभी गूजरते हैं , लेकिन अफसोस हम उस समय को आप जैसा सुन्दर एहसास नही दे पाते , और नहीं ही उसे शब्दो में पिरो ही पाते है । लाजवाब रचना
तन्हाई को इससे खूबसूरत तरीके से बयान नहीं किया जा सकता..
ek bahut acchi poem....dua karte hai aapki jung jald hi khatam ho jaye...
बहुत खुबसुरत रचना, अब मियां जल्दी से हाथ पीले कर लो, फ़िर आप की कवितओ मै ऎसी उदासी नही आयेगी
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
कभी तनहाई में ऐसी हालत पाई जाती है....:)
अरे यह कैसी जंग है-एकतरफा सी !
रचना बहुत अच्छी लगी।
Kya andaze bayan hai...aisa laga jaise mere moohse alfaaz chhin gaye ho!aapki ye tanhaayee jaldhee door hogee...
सच्चाई यही है भाई की हम सब अपने अंदर एक बड़ा विशाल सपनों का संसार लिए फिरते है जिसके साकार होने की खुशी और टूटने का भय भी हमारे जेहन में आता जाता रहता हैपर हम दूसरों से उसे छुपाना चाहते हैं..
महफूज़ भाई बहुत बढ़िया आगी आपकी यह मनोभाव..
शुरुआत बढिया की है, लेकिन ऐसा लगा जैसा कविता अचानक खत्म कर दी गई हो । किस तरह की जंग चलती रहती है आदमी के अंदर इसे थोडा खोलकर लिखते तो और अच्छी बन पडती ।
खुदी से जंग ,खुदी से सवाल और
खुद hi को जवाब
हर नाजुक,शायराना मिजाज इन्सान के साथ ऐसा hi होता है
चेहरे पे ये उजाला तेरे इश्क का है
उदासी कुछ कुछ झाँकती सी है क्यों
तेरी झुकी पलकों से ,कोई देखे
इनमे भी असर उसके इश्क का है
इश्क क्या किया ,इश्क का पैगम्बर हो गया
अमृता का hi नही, इश्क वालों का तु खुदा हो गया
हैं ,
अपने को hi समझाने के लिए झूठ भी,खुद hi से
थोडा और खुलते ,लगा जैसे इज़हारे जज्बात मे भी कंजूसी कर दी
क्या यहाँ भी ......युद्ध ...अपने जज्बात ओ ख़यालों से
mamma
अरे किया है यह? ना सिर ना पेर , अरे यार कुछ तो वज़न का ख़याल रखो, या फिर इंग्लीश मैं ही लिखते रहो, अब यह जो वाहवाह कर रहें है, बेचारे खुद को बुद्धिजीवी साबित करने मैं लगे हैं, भाई हम को तो सच बोलने मैं मज़ा आता है,
झूठ वाले कहाँ से कहाँ बॅड गये
एक मैं था की सच बोलता रह गया
bilkul sahi kaha apne. kaise aap itna achchha soch lete hai.
किस सोच में डूबे रहते हैं महफूज जी ....कौन है वो ....???
ख्वाबों ..ख्यालों की मल्लिका ...हुस्न-ए-महफूज़ की अनारकली ....तसवीरें तो लगाइए ....!!
खुदी से जंग ,खुद से swal और खुद hi को जवाब ,हर नाजुक,शायराना मिजाज इन्सान के साथ ऐसा hi होता है
अपने aapko को समझाने के लिए खुद hi से झूठ bhi.....
थोडा और खुलते ,लगा जैसे इज़हारे जज्बात मे भी कंजूसी कर दी
क्या यहाँ भी ......युद्ध ...अपने जज्बात ओ ख़यालों से
उठो, जिंदगी से कहो -'' पंजा लड़ाएगी?
महफूज भाई,
हर आदमी की एक जंग अपने जीवन के सबसे बड़े झूठ से जुडी होती है...आपने शब्दों का चित्र खींच डाला!
खुद की लड़ाई पर एक शेर याद आ गया ---
'' कैसा मेरे जिस्म में इक शोर मचा है .
अपनी ही आवाज सुनाई नहीं देती | ''
शुक्रिया जनाब ... ...
"वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है...."
बहुत खूबसूरत रचना , बहुत बहुत बधाई !!
Excellent,
काफ़ी कॉम्लीकेटेड कविता लिख दी इस बार आपने..बोले तो साइकॉलोजिकल इम्पैस..
खोये रहने का यह फिजिकल सिम्प्टम
और काटता रहता हूँ
दांतों से नाखून.
और मेंटल सिम्प्टम
एकटक छत को घूरता रहता हूँ
एक सही मुकाम पर ले आती है कविता को..
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
उस आत्मसमर के थोथेपन को उजागर करते हुए..
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
मुझे लगता है कि कविता का छोटा होना ही इसकी बड़ी शक्ति है..जो कविता के आगे के सारे सूत्र पाठकों के हाँथ मे ही थमा देती है..बिना किसी व्यक्तिगत भावारोपण किये..
आपकी बेहतर और बेहद ईमानदार कविताओं मे से एक...
और इस हालत का सोल्यूशन
..आपकी पिछली वाली पोस्ट मे है ;-)
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है..
mahafooz jee, akelepan ko rekhaaMkit karatee bahut sundar rachanaa hai.
बहुत खूब महफूज़ भाई ........ कमाल का लिखा है ..... सच में कभी कभी इंसान जब खुद से ही लड़ रहा होता है .... अचानक उसका झूठ चेहरे पर आ जाता है ...... अपने आप से लड़ने की जद्दोजेहद चलती रहती है ...
हम भी गुजरते हैं इन मुकामों से
खुद के नाखून काट ,
खुद से ही लड़ लेते हैं .
हाँ नहीं होती ये बेमतलब लडाई
होता है तब ,
जब हो ख्वाबों में कुछ समाई
या मिल जाये जब ,
कोई तगड़ी सी बेवफाई
तो बरखुरदार हरकीरत ' हीर ' के सवाल का जबाब दे देना ,मुझे भी मिल जायेगा :)
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
बहुत सुन्दर लगी आपकी रचना...
बधाई....
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
-बहुत गहरे भाव!! वाह महफूज!
अवश्य ही
लिंक के लिए आपका आभार
महफूज़ प्यारे,
शादी कर लो...फिर तुम्हे कुछ नहीं करना होगा...जो जंग लड़नी होगी बस मोहतरमा ही लड़ेंगी...तुम्हे तो बस हम जैसे बड़े भाइयों से बस बचाव के दांव सीखने होंगे...
जय हिंद...
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
हम में से हर कोई किसी न किसी जंग में उलझा हुआ है...
बढिया रचना!
ye to mere saath bhi aksar hota hai:)
nice
आप अपनी जंग जल्दी ही जीत जाएँ यही कामना है
सुन्दर अभिव्यक्ति!
ये जीवन एक जंग ही तो है।
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
बहुत सुन्दर महफूज भाई, गहरे अहसास ! अक्सर यह मेरे साथ भी होता है !
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
सत्य और अच्छी (या यूं कहे कि सधी हुई) अभिव्यक्ति. वाह!
कविता पढ़कर लग रहा है मन की उलझन को शब्दों में पिरों दिया हो...
सुन्दर...
हर कोई इसे महसूस कर सकता है और चाह कर भी अपनी इस जंग मे किसी को शामिल नही कर पाता,सबका जवाब एकसा ही होता है नही,कुछ नही,कुछ भी तो नही,बस यूंही ही।
कम शब्द और भाव पूरे..
सुन्दर...
आभार
प्रतीक
धर्म से कमाई या कमाई का धर्म?
महफूज़ जी,
आपका इतना बड़ा झूठ एक बहुत बड़ा सच है .
आपकी ये रचना शायद हर इंसान का सच है.
आपकी अभिव्यक्ति सटीक और सुन्दर है...बधाई
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
हर व्यक्ति के मन में एक कशमकश के भाव कभी न कभी आ ही जाते हैं, और फिर वह उनसे बाहर भी आ जाता है, बहुत ही सुन्दर रचना, आप हर क्षेत्र में विजयी हों, शुभकामनायें ।
कई लोगों के दिल की बात कह डाली आपने,शायद हर कोई खुद को इस परिस्थिति में कभी ना कभी जरूर पाता है (हाँ नाखून काटने वाली बात एक्सक्लुसिव हो सकती है :) )..बाहर की जंग से अपने अन्दर चलने वाली जंग सबसे मुश्किल होती है.
सुन्दर अभिव्यक्ति
khud se jung duniya ki sabse badi jung hoti hai aur uska sira hi to pakad mein nhi aa pata ........kyun khud se lad rahe hain agar yahi hath mein aa jaye to kafi pareshaniyan door ho jayein........ek bahut hi mukammil rachna.........badhayi.
zara yahn bhi gaur farmaiyega-------
http://redrose-vandana.blogspot.com
महफूज भाई,
एक दो दिनों से कोशिश कर रहा हूँ आपका फोन नही लग पा रहा है।
तन्हाईयों में डूबी हुई कविता पाठक को भी तन्हाईयों में खींच ले जाती है :-
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मन की व्यथा उजागर कर दी
सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.
खुद से जंग और वक़्त का झूठ दोनों ही बहुत बड़े सच है ..अच्छी लगी आपकी यह रचना .शुक्रिया
अच्छा है
ऐसा अक्सर सभी के साथ होता है
शब्द आपने दिया
..बधाई
bahut khoobsurat ,ada ji ki baat se main bhi sahmat hoon
बहुत खूब सूरत अंदाजे बयां है बंधू. अति सुंदर. आनंद आया.
रामराम.
अति सुन्दर और सत्य वचन महफूज़ भाई !!!
bahut hi sachhi bat aapne bol diya hai ...ye bahut hi bara sachh hai... akasar log yahi kahate hai hai.... kuch bhi to nahi ....bahut bara sachai ko liye huye poem ...bahut achha .
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है.
कमाल की रचना है ये आपकी...शब्दों का अद्भुत प्रयोग...वाह...
नीरज
jane kitni baar yah jhooth bolte hain hum.......kaafi saral rachna
अद्भुत रचना! बेहद खूबसूरती से आपने हर शब्द लिखा है! आप जंग ज़रूर जीतिएगा ये मुझे पूरा विश्वास है! इस उम्दा रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
भीतर की लड़ाई अक्सर अकेले लड़ी जाती है,इस सच को सामने लाती.बढ़िया रचना महफूज़ भाई.
hum sab apnee - apnee jung aise hee ladte hain....bahut achchhe rachna hai..badhaai
कोई मुझे थक हारकर
झिंझोड़ता है और पूछता है
क्यूँ क्या हुआ?
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
अरे!...ये तो अपुन के साथ भी होता है...
बहुत बढिया
मेरे मुहँ से अचानक निकलता है
नहीं......!!!! कुछ भी तो नहीं...
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
bahut badhiya line hai bhaijaan....!!
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
" kya baaaat hai bahut hi baddhiya rachana dil ko choo gayi ...aapko dhero badhai sir ."
----- eksacchai { AAWAZ ]
http://eksacchai.blogspot.com
maafi chahunga ki mai kuch jaroori kaam ki vajah se net per nahi aa raha tha
हर कोई लड़ता है अपनी जंग ...होकर इसी तरह गुमसुम ...खुद इसी तरह अनजान बन कर ..!!
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
हर आदमी की सचाई है यह ।
महफूज़ भाई....
यह उस वक़्त का सबसे बड़ा झूठ होता है
वास्तव में उस वक़्त मैं .....
लड़ रहा होता हूँ
एक जंग खुद से
जिसमे कुछ भी तो नहीं शामिल होता है....
जिंदगी जंग है........लड़ना नियति.....! हारना भी नहीं है
बहुत ही उम्दा नज़्म.........!
अद्भुत अंतर्द्वंद बहुत ही बड़ा होता है| किसी युद्ध जैसा जो किसी को दिखाई नहीं देता कितने तूफ़ान मन में चलते हैं | लेकिन किसी और को दिखाई नहीं देते पर महसूस कर सकते है!!! आपकी रचनाएँ वास्तव में लाजवाब हैं!!!
बहुत सुन्दर रचना भैया !!!!!!
बहुत खूब लिखा है।
महफूज़ भाई ,
आदाब
... इंसान अपने आप से सच बोलता है तब
समझिये , एक न एक दिन वह जिन्दी की जंग भी जीतेगा ------
आप, इसी तरह लिखते रहें.....और हां,
ये भी कहना चाहूंगी के,
आपका मेरे जाल घर पर आना और मेरी बातें सुनना ,
आपके संवेदनशील व्यक्तित्त्व का बोध देता रहता है
शुक्रिया ...
- लावण्या
जब मैं खोया हुआ रहता हूँ,
एकटक छत को घूरता रहता हूँ
अपने आसपास से अनजान
और काटता रहता हूँ
दांतों से नाखून.
Sundar sahaj bhav abhivyki ke liye badhai. Saath mein ID ki haardik shubhkamnayne.
pehli baar aapke blog per aayi hu..bahut acchhi lagi aapki rachna ek aam aadmi ki kashmokash ko kitni saadgi se lafzo ka jama pehnaya hai jo rachna ki sundarta ko badha raha hai.
badhayi.
sahajta se kahi achchhi rachna.......shukriya
pahle se itne comments hain, kya likhun.. par han.. padh kar laga jaise apne hi man ki baat ho.. balconi mein baithe rahna aur kisike puchne par kahna ki kuch nahi soch raha....
बहुत सुंदर और सच्चाई बयां करती रचना है | बधाई स्वीकार करे |
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