सोचता हूँ कि अपने नाम के आगे डॉ. लगा लूं.. हाँ! भई.. आख़िर पी.एच.डी. किये हुए आज आठ साल हो गए हैं और अब तो दूसरी पी.एच.डी.भी तैयार है. लेकिन पता नहीं क्यूँ अजीब लगता है? मेरा ऐसा मानना है कि पी.एच.डी. नालायक लोग करते हैं, यही एक ऐसी क्वालिफिकेशन है जिसके बारे में कभी कोई सवाल नहीं होता. यही एक ऐसी क्वालिफिकेशन है जिसके लिए आपको पढना नहीं पड़ता सिर्फ अपने गाइड को तेल लगाते रहिये. यही एक ऐसी क्वालिफिकेशन है जिसके बारे में कभी किसी भी इंटरविउ में कोई सवाल नहीं होता आपसे सिर्फ रिसर्च मेथडोलॉजी पूछी जाती है. अगर कोई इतना ही इंटेलिजेंट होता है तो पी.एच.डी. नहीं करता. जिस प्रकार एक साहित्यकार (जो आखिरकार नालायक ही साबित होता है) को उसकी डेथ बेड पर साहित्य सम्मान दिया जाता है उसी प्रकार पी.एच.डी. आपकी क्वालिफिकेशन का अल्टीमेट सर्टिफिकेशन होती है.
मेरी शक्ल मेडिकल डॉक्टर जैसी है. मैं जब भी लखनऊ के के.जी.एम.सी. मेडिकल कॉलेज जाता हूँ तो वहां के कई जूनियर मुझे सीनियर समझ लेते हैं और जहाँपनाह वाले अंदाज़ में तीन बार सलाम ठोंक देते हैं. मेरी सिचुएशन बहुत अजीब होती है तब. कई बार तो मुझे बहुत सारे पेशेंट्स डॉक्टर समझ कर घेर लेते हैं. अब तो मेडिकल कॉलेज में भी फाइनल इयर में मैनेजमेंट के एक-आध सब्जेक्ट्स पढ़ाए जाते हैं और जब मुझे अपना नाम डॉ. (महफूज़ अली) के साथ बताना पड़ता है तो मेरा चेहरा अजीब सा हो जाता है. मैं ख़ुद को बड़ा नालायक फील करता हूँ. सोचता हूँ अगर इतना ही इंटेलिजेंट होता तो भई पी.एच.डी. क्यूँ करता?
अगर कोई बच्चा वाकई में इंटेलिजेंट होता है तो वो बारहवीं के बाद ही आई.आई.टी./मेडिकल/एस.सी.आर.ऐ./ एन.डी.ऐ/या होटल मैनेजमेंट में निकल जायेगा. उसके बाद जो एवरेज होगा वो ग्रेजुएशन/पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सी.डी.एस. / बैंक पी.ओ./ सिविल सर्विसेस/ लेक्चरार/या यू.जी.सी./गेट/मैट पास करके निकल जायेगा. जो इनमें से कुछ भी नहीं बन पायेगा वो और आगे पढ़ता हुआ पी.एच.डी. करेगा और फ़िर ज़िन्दगी भर भी कुछ नहीं करेगा. हमने तो भई यू.जी.सी. जे.आर.ऍफ़. लिया था और सिविल सर्विसेस में भी दो बार इंटरविउ तक पहुंचे थे.
जब कोई बच्चा स्कूल टाइम से लेकर कॉलेज तक में नालायक होता है. हाई स्कूल और बारहवीं में घिस घास कर पास होता है... ना डॉक्टर बनने लायक होता है ना इंजिनियर, ना आई.ऐ.एस. बनने लायक होता है ना प्रोफ़ेसर, ना पौलिटीशियन बनने लायक होता है ना बिजनेसमैन, ना टीचर बनने लायक होता है ना चपरासी, ना लेखक बनने लायक होता है ना कवि. ऐसा बच्चा बड़ा होकर 'पत्रकार' बन जाता है ... या... किसी जागरण/ज़ेवियर/घोरहू-कतवारू इंस्टीट्युट ऑफ़ मॉस कम्युनिकेशन टाईप के संस्था से डिप्लोमा लेकर 'एंकर' बन जाता है.
वैसे मैं तो अपने नाम के साथ नेट (इंटर) पर डॉ. इसीलिए नहीं लगाता हूँ कि कौन अपना बचपना ख़त्म करे. नोर्मल लाइफ में तो सीरियस ही रहना पड़ता है एक यही तो वर्चुयल दुनिया है जहाँ थोडा बहुत बचपना इस उम्र में भी दिखा सकता हूँ.
इस उम्र से ध्यान में आया कि मैं हमेशा लोगों को सलाह दूंगा कि भई एक्सरसाइज़ ज़रूर किया करें और खाना बहुत सोच समझ कर खाएं . इससे क्या होता है ना कि आप ख़ुद ही अपनी उम्र को धोखा दे देंगे. अभी क्या हुआ ना कि लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के मीटिंग में लंच के दौरान जब प्रज्ञा पाण्डेय जी, सुशीला पूरी जी, उषा राय जी और प्रज्ञा जी की एक बहुत ही अच्छी सहेली हैं किरण जी जो कि बहुत ही नामी साहित्यकार हैं और हमेशा हंस/वागर्थ में छपती रहती हैं (इन्होने मुझे बचवा कह कर पुकारा था) को जब मैंने अपनी उम्र बताई तो सब थोड़ी देर के लिए परेशान हो गईं थीं और मैं बहुत खुश. सब लोग सोचते होंगे मुझे कि कितना आत्ममुग्ध इन्सान है? ख़ैर.....
जिन दिनों नहीं कुछ लिख रहा था... तो... उन दिनों कविता लिखी थी. अब लिखी तो कई सारी हैं... लेकिन ब्लॉग पर धीरे धीरे रोज़मर्रा ज़िन्दगी में से टाइम निकाल कर डाल रहा हूँ. तो प्लीज़ ...यू ऑल आर रिक्वेस्टेड टू हैव अ स्लाईट ग्लैन्स ओवर माय कविता इन हिंदी.
जड़ का प्रमाण
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यह नींद भी कितनी अजीब है,
पलकें बाहर से बंद कर लो
और आँखें
अंदर खुल जातीं हैं.
मैं अपनी नींद के भीतर
सालों से जागते हुए
देख रहा हूँ ----
एक अंकुर को फूटते हुए
पर मैं जड़ बनने को तैयार नहीं हूँ ....
कब तक मैं भीतर रह कर
औरों को इंधन पहुंचाता रहूँगा?
जड़ का प्रमाण ही यही है,
कि पौधा फलों को
जन्म देकर
उन्हें जवानी तक पहुंचाने में दम तोड़
देता है.
(c) महफूज़ अली
इंधन=Fuel
प्रमाण=Evidence
जवानी=youth
अंकुर=Baby Plant (यह कुछ हिंदी के टफ वर्ड्स हैं जिन्हें मुझे डिक्शनरी में देखने पड़े हैं)
उम्मीद है कि कविता अच्छी लगी होगी. पिछले साल अगस्त में लिखी थी. अब भई.. मेरा मनपसंद गाना देखिये भी और सुनिए भी.