गुरुवार, 14 जून 2012

लखनऊ नवाबों से पहले -भाग 1 (आईये जाने एक इतिहास): महफूज़

आज से मैं लखनऊ का अनदेखा और अनजाना इतिहास पेश कर रहा हूँ. यह इतिहास मैंने नहीं लिखा है और ना ही मेरा इसे लिखने में कोई ऐसा योगदान है. यह वो इतिहास है जिसे हम जानते तो हैं लेकिन सिर्फ नाम से. लखनऊ वो शहर है जो पूरी दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अपनी तहज़ीब और बाग़ों के लिए जाना जाता है. लेकिन किसी को भी यह नहीं पता है कि लखनऊ कैसे और कब तहज़ीब और बाग़ों का शहर बना? ऐतिहासिक तौर पर भी लखनऊ के बहुत मायने  हैं मगर वो इतिहास लखनऊ के वासी और देश के लोग नहीं जानते हैं. तो उसी इतिहास को सामने लाना ही मेरा उद्देश्य है. शुरुआत तो लखनऊ के इतिहास से कर रहा हूँ मगर वो देश का इतिहास भी होगा और विवादित भी हो सकता है. जो भी इतिहास मैं बताऊंगा वो पूरी तरह से तथ्यों (फैक्ट्स) पर आधारित हैं और मेरे द्वारा भी रिसर्च किये हुए हैं. हर लिखे हुए का सबूत मेरे पास है. अगर किसी को मेरे इतिहास लेखन पर आपत्ति होगी तो उसका कोई मतलब नहीं होगा. नॉलेज गेन करना हमारा शौक़ होना चाहिए. (मेरी कोशिश यह रहेगी कि मैं हिंदी का प्रयोग करूँ और सरल भाषा में अनदेखा अंजाना सा इतिहास आपके सामने रखूं). प्रस्तुत इतिहास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व एच.ओ.डी. श्री. शिव बहादुर सिंह ने अपने शोध से लिखा है और उसे लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास डिपार्टमेंट के पूर्व प्रोफ़ेसर श्री. डी.पी. तिवारी जी ने अनुमोदित किया है. इतिहास लिखने के लिए मैं हिंदी वाड्मय निधि खुर्शीदाबाद, लखनऊ का भी आभारी हूँ.

आजकल हमारे नगरों में बड़ी तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं. एक ओर नगर के पुराने निवासी अपनी विरासत से कटते जा रहे हैं तो दूसरी ओर बाहर से से आकर नगरों में बसने वाले उसके बारे में कुछ नहीं जानते. इसका नतीजा यह होता है कि हम ना तो अपने नगर जनपद से नाता जोड़ पाते हैं और ना ही गौरव का भाव ला पाते हैं. प्रेम और गौरव बोध के बिना हम अपने नगर जनपद को धर्मशाला या होटल से ज़्यादा भला क्या समझेंगे? और तब उसके विकास की फिकर क्यूँ करेंगे? अपने नगर से हमारा भावनात्मक सम्बन्ध होना ही चाहिए. पर यह तभी होगा जब हम उसके इतिहास को जानें, सांस्कृतिक विरासत से परिचित हों, विभिन्न वर्गों-साम्प्रदायों के नगर जनपद को योगदान का आंकलन करें. नगर जनपद से भावनात्मक प्यार वाह धागा है जो उसके सभी लोगों को बिना भेदभाव के जोड़ता है. अपने लखनऊ का परिचय देने के लिए हिंदी वाड्मय निधि के सहयोग से यह श्रृंखला ब्लॉग के माध्यम से लाने का मैंने प्रोमिस (निश्चय) किया है. मैं अपने हिंदी के गुरु श्री. उपाध्याय जी (मामा जी) का भी आभारी हूँ जो हिंदी लिखने, बोलने और प्रोंन्सियेशन में मेरी पूरी मदद कर रहे हैं. आईये आज थोडा सा लखनऊ के बारे में जानें और पूरी श्रृंखला से लखनऊ के इतिहास को एक अलग नज़रिए से समझें. 
(यह रामायण अरबी और फ़ारसी में लिखी गयी है और सिर्फ लखनऊ में है)

यह सच है कि लखनऊ दुनिया में प्रसिद्ध तब हुआ जब वह अवध के नवाबों की राजधानी बना (1775 -1856) लेकिन उससे बहुत पहले लखनऊ शहर और ज़िला आबाद हो चुका था. अब तक की खोज और खुदाई से इस जनपद में मनुष्यों की बसती का प्रमाण लगभग चार हज़ार साल पहले मिलने लगता है. लखनऊ को सबसे पहले आबाद करने वालों के सम्बन्ध में अब तक के कहाँ और क्या प्रमाण मिले हैं, कैसे उनका जीवन बदला? फ़िर कैसे लखनऊ नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ने लगा जो नवाबों के समय शिखर पर पहुंचा. ऐसे ही कुछ लखनऊ के लम्बे इतिहास की कहानी  मैं सामान्य भाषा में सामान्य पाठक के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. 

लखनऊ के विषय में लम्बे समय से यह समझा जाता रहा है कि इसका नामकरण अवध नरेश श्री. राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर हुआ था. यह एक रोचक तथ्य है कि इस मान्यता की पुष्टि आदि काव्य वाल्मीकि रामायण से होती है. रामायण के उत्तरकाण्ड में लोकापवाद से बचने के लिए राम द्वारा सीता के परित्याग का उल्लेख है. अयोध्या से सीता को गंगा के किनारे स्थित वाल्मीकि आश्रम में छोड़ने का दायित्व लक्ष्मण को सौंपा गया था, जिन्होंने सुबह रथ से यात्रा शरू कर गोमती तट पर स्थित एक आश्रम में रात को आराम किया था-- ततो वास्मुपगम्य गोमतीतीर आश्रमे (वा.रा.7/46-19). दूसरे दिन दोबारा सुबह अपनी यात्रा शुरू कर के दोपहर में वे गंगा तट पर पहुंचे फ़िर नाव से गंगा को पार कर सरिता तट पर स्थित ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में सीता को छोड़ दिया--

राज्ञो दशरथस्यैव पितुर्मे मुनिपुंगवः !! सखा परमको विप्रो वाल्मीकिः सुमुहायशः! 
पाद्च्छयामुपागम्य सुखम्स्य महात्मनः! उपवासपरैकाग्रा वस त्वं जनकात्मजे!! (वा.रा. 7/47/16-17)

अब सवाल यह उठता है कि वह कौन सा स्थल हो सकता है जहाँ लक्ष्मण ने रात्री वास किया था और जहाँ से सुबह चलकर दोपहर गंगा तट पर पहुँच गए? वर्तमान लखनऊ शहर में गोमती किनारे स्थित लक्ष्मण टीला ही इस लिहाज़ से सबसे उपयुक्त दिखाई देता है. और यही टीला आज भी लक्ष्मण टीला के नाम से ही प्रसिद्ध है. यहीं रात्री विश्राम के बाद लक्षमण गंगा पार कर बिठुर स्थित वाल्मीकि आश्रम पहुंचे होंगे. कई कारणों से इस स्थल की खुदाई नहीं हो सकी है नहीं तो इतिहास की और भी परतें खुलतीं. यह भी कहा जाता है कि युधिष्ठिर के प्रपौत्र जनमेजय ने यह क्षेत्र तपस्वियों को दान कर दिया था. 

इसके विपरीत लखनऊ गैज़ेटियर के अनुसार "लिखना" नाम के शिल्पी ने शेखों के शासनकाल में एक क़िला बनवाया जिसका नामकरण उसी के नाम पर लिखना क़िला पड़ा. आगे चल कर ऐसा कहा जाता है कि उसी के नम पर लखनऊ नगर का नाम पड़ा. अब यह भी विचारणीय है कि किसी क़िले का नाम शिल्पी के नाम पर रखना अस्वाभाविक है. यह भी सोचने वाली बात है कि शेख शासकों ने भला अपने क़िले का नाम अपने शिल्पी के नाम पर क्यूँ रखा होगा? इसके अलावा अवधी भाषा में "लिखना" किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता. वस्तुतः यह नाम 'लखना' हो सकता है जो लक्ष्मण नाम का ही अवधी अपभ्रंश है. संभवतः स्थानीय अवधी भाषा में लखना नाम बोलचाल की भाषा में लखनू, लखनुवा, लखनवा, और अंत में लखनऊ हो गया. अँगरेज़ जिसे प्रोनाउन्स नहीं कर पाते थे तो लैकनेओ बुलाते थे जिसकी वर्तनी (स्पेलिंग) अंग्रेज़ी में LUCKNOW लिखते थे और आज भी यही लिखी जाती है. क्रमशः ..... To be contd..... 

आभार: 
  • हिंदी वाड्मय निधि लखनऊ 
  • डॉ. एस. बी. सिंह 
  • स्वयं 
  • मैं अपनी स्टेनो कम टाइपिस्ट रीना का भी शुक्रगुज़ार हूँ.. जिसे मुझे कुछ भी समझाना नहीं पड़ा... शी इज़ वैरी इंटेलिजेंट..
  • ऋचा द्विवेदी 

मंगलवार, 12 जून 2012

डॉ. की दुविधा, टूटते सिलसिले बिन छाया के रह जायेंगे और चाय का कप: महफूज़


मैं थोडा आजकल परेशान चल रहा हूँ. मेरी परेशानी यह है कि मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं अपने नाम के साथ डॉ. लगाऊं या नहीं? आख़िर पी.एच.डी. किये हुए आठ साल हो गए हैं. और ऑफिशियली डॉ. लगाना पड़ता है. अगर डॉ. लगाता हूँ तो मेरा बचपना ख़त्म हो जायेगा जो कि मैं चाहता नहीं हूँ. मुझे बहुत सीरियस रहना पड़ेगा जैसा की मुझे अपनी नोर्मल लाइफ में रहना पड़ता है.  अगर मैं डॉ. लगाता हूँ तो अपनी उम्र से और बड़ा दिखूंगा. फ़िर एक तो मैं वैसे भी बहुत ऐटीट्युड वाला इन्सान हूँ और पब्लिकली लोग मुझे घमंडी भी कहते हैं. डॉ. लगा लूँगा तो पब्लिकली  ऐटीट्युड नहीं दिखा पाउँगा. हालांकि! मार पिटाई.....गरियाना तो मेरे लिए अलग बात है.... यह सब तो आत्म सम्मान के लिए करना पड़ता है. लेकिन अब सोच रहा हूँ कि सोशल साइट्स पर भी डॉ. लगा ही लूं. पर एक चीज़ और है जिससे मैं घबराता हूँ कि डॉ. देख कर महिलाएं थोडा दूर हो जातीं हैं.  और मैं महिला मित्रों को खोना नहीं चाहता. मेरा सीरियस  ऐटीट्युड देख आकर सब वैसे ही भाग जायेंगीं.. 
(गोरखपुर स्थित मेरे घर का अगवाडा, इस भीषण गर्मी में भी पौधों को जिंदा रखना बड़ी बात है )
और फ़िर डॉ. लग जाने से संजीदगी का शो ऑफ करना पड़ेगा. और शो ऑफ मैं सिर्फ बौडी बिल्डिंग का ही करता हूँ. डॉ. लग जाने से यह सब बंद हो जायेगा. पी.एच.डी. के अपने फायदे भी हैं तो नुक्सान भी हैं. वैसे एक चीज़ बता दूं पी.एच.डी. सिर्फ और सिर्फ़ नालायक लोग करते हैं. जिनके पास सब्जेक्ट नॉलेज नहीं होती. हाँ! हम जैसे यू.जी.सी. वाले जो जे.आर.एफ. लेकर पी.एच.डी. करते हैं और दो चार बार सिविल से बाहर हो जाते हैं और फ़िर पूरी ज़िन्दगी  सुपिरियौरीटी कॉम्प्लेक्स में जीते हैं...  वो नालायकों की कैटेगरी में नहीं आते. (कहीं ना कहीं मेरा ऐटीट्युड दिख ही जाता है.... हा हा )
(गोरखपुर स्थित मेरे घर का पिछवाडा)
अब बता दूं अगली पोस्ट से मैं डॉ. लगाता हुआ ही दिखाई दूंगा... मेरा एक नुक्सान होगा कि मैं  फ़िर ताने नहीं मार पाऊंगा... लोगों की  धो नहीं  पाउँगा.. लेकिन अब लगाना तो पड़ेगा ही डॉ. .. आख़िर एक पहचान तो यह है ही.. 
(यह मैं सुबह के वक़्त)

आईये अब ज़रा मेरी एक कविता देखी जाए: 

सिलसिले टूट रहे हैं 

सुबह हो रही है 
मगर परछाइयों के सिलसिले 
टूट रहे हैं 
और हमारे बीच से
अब 
धूप का अंतराल ख़त्म हो गया है 
अब 
जवान होती दोपहर में भी 
हम बिन छाया के रह जायेंगे. 

(c) महफूज़ अली  

अब अगली बार से  मेरी खोजपरक और हिसटौरीकल सीरीज शुरू होंगीं. उन सीरीज में मेरा कोई ख़ास योगदान नहीं है. मेरा सिर्फ इतना कंट्रीब्युशन है कि मैं वो ईतिहास फैक्ट्स के साथ देश और समाज के सामने रखूँगा जो अब तक के गुमनाम है और आमजन को पता नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि पता नहीं है.. पता है ..लेकिन आम जन के सामने नहीं है और स्कूल कॉलेज के राजनितिक इतिहास से अलग है। वैसे भी बेकार लोगों के चक्कर में बकवास चीज़ें लिखते लिखते अब मेरा मन ऊब गया है।

सोमवार, 11 जून 2012

खुशदीप भैया... गेट वेल सून (Get Well Soon) : महफूज़

पिछले चार पांच दिनों से मन बहुत  अजीब हो रहा था. सब कुछ अच्छा होते हुए भी अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो आजकल ज़्यादातर वक़्त गोरखपुर में बीतता है दूसरा गोरखपुर में इन्टरनेट कनेक्शन नहीं रहता है. और फिर बिज़ी इतना कि मोबाइल फोन तक का ध्यान नहीं रहता है (बीते हुए वक़्त को दोबारा पाना बहुत मुश्किल होता है). पिछले दो तीन दिन से मन यूँ ही बहुत खराब हो रहा था. 
मैं बिला वजह परेशान था और उन परेशानियों का कारण भी खोज रहा था. लेकिन उन कारणों का पता नहीं चल पा रहा था. लखनऊ लौटा तो थोडा फ्री हुआ तो अपने चंद मित्रों को कॉल किया और पाबला जी से हमेशा की तरह गुफ्तगू हुई. उसके बाद भी अजीब सा खालीपन लग रहा था. तभी ध्यान आया कि खुशदीप भैया से बात नहीं हुई काफी दिनों से. उन्हें कॉल लगाया तो काफी देर तक घंटी गयी लेकिन फोन नहीं उठा. इससे पहले कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि मेरा फोन नहीं उठा हो चाहे वो रात के तीन बजे ही क्यूँ न हो? 

मैंने फिर कॉल मिलाया तो काफी देर घंटी जाने के बाद फोन उठा तो पता चला कि खुशदीप भैया की भतीजी ने फोन उठाया है और मुझे बताया गया कि भैया हॉस्पिटल में एडमिट हैं और अभी अभी उन्हें नींद का इंजेक्शन दिया गया है. और चाची जी (भाभी जी) दवा लेने ज़रा बाहर की ओर गयीं हैं. मुझे पता चल गया कि मेरा मन इतने दिनों से अशांत क्यूँ था? यह मेरी भैया से बोन्डिंग ही थी जो मुझे बता रही थी. 

इसके बाद मुझे भैया से बात करने की बेचैनी होने लगी. लेकिन मैं उनके जागने का इंतज़ार ही कर सकता था. फिर एक इंटयुशन यह भी देखिये कि जैसे ही भैया तीन घन्टे बाद जगे तो मुझे अपने आप पता चल गया और मेरी बात भैया से हो गयी. हालचाल लेने के बाद अब जाकर चैन मिला है. ऐसा लग रहा है कि जैसे खोई हुई चाभी मिल गयी हो. भैया मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ. आप ही तो हो जो मेरे साथ हर तरह से होते हो. अच्छे में भी और बुरे में भी. आप मेरे लिए भाई से बढ़ कर हो. एक आप ही तो हो जिसके दम पर मैं थोडा यहाँ उछल भी लेता हूँ. आप जल्दी से ठीक हों यही मेरी ईश्वर से कामना है और फिर से पहले की तरह सबको हंसाएं. खुशदीप भैया  आई लव यू... 

बुधवार, 6 जून 2012

वक़्त बहुत कीमती है, मासिक धर्म और कुछ हमारी मजबूरी: महफूज़

ब्लॉग लिखने के लिए अलग से टाइम निकालना पड़ता है. मैं रोज़ सोचता हूँ कि कुछ ना कुछ लिखूंगा लेकिन टाइम नहीं मिल पाता है. जब हमें वक़्त का नुक्सान बिना किसी मतलब में हो जाता है तो  उस बीते हुए पल की भरपाई बहुत मुश्किल से हो पाती है. और खासकर तब जब आप स्वाभिमान और अभिमान की वजह से वक़्त को खोते हैं तो यही दोनों मान फ़िर से आपका खोया हुआ वक़्त आपको वापस दिलाने में आपकी मदद करते हैं और फ़िर उसके लिए जद्दोजहद की जंग सामाजिक तौर पर शुरू हो जाती है. जब हमारा वक़्त ख़राब होता है ना तो हमें ऐसे लोग भी मिलते हैं जो हमारा वक़्त बिना मतलब में ज़ाया कराते हैं. तो ऐसे वक़्त में अच्छा बुरा पहचानने की ताक़त भी कम हो जाती है. 
और ऐसे ही बुरे वक़्त में हम लोगों को सामजिक तौर भी नहीं पहचान पाते हैं. वक़्त ही एक ऐसी चीज़ है जो आप जितना चाहें उतना खो सकते हैं... और खोने के बाद कुछ पा नहीं सकते हैं. वक़्त को वेस्ट करने का सबका अपना अपना तरीका होता है और ज़्यादातर लोग अन्प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. कुछ लोग ब्लॉग लिखते हैं तो इतना लिखते हैं कि लोग सोचने लगते हैं कि यह आदमी काम क्या करता होगा? कुछ लोग फेसबुक पर बैठते हैं तो इतना बैठेंगे कि सामने वाला सोचेगा कि यह कोई धन्ना सेठ है. 
कुछ लोग यहाँ वहां की यूँ ही गप्पें लड़ायेंगे या बिना मतलब की बहस में उलझेंगे और तो और कुछ लोग सिर्फ बातों ही बातों में देश की इकोनोमी और सिस्टम सुधार देते हैं. तो कुछ लोग प्रोडकटिवली वक़्त को खोते हैं. इनके  अन्प्रोडकटिव काम भी प्रोडक्टिव होते हैं. मुझे ऐसा लगता है कि अगर पुरुष है तो उसे सिर्फ प्रोडक्टिव काम ही करने चाहिए और ऐसे काम करने चाहिए जो दिखाई दे और साक्षात नज़र आये. पुरुषों का बिना मतलब में वक़्त को बेकार करना बेमाने है. 
पुरुष ऐसा ही अच्छा लगता है जो हर तरह से सम्पूर्ण हो मौरली, सोशली और फ़ाइनैन्शियलि. बिना कार, फौरेन ट्रिप्स, लेटेस्ट इलेक्ट्रोनिक गैजेट्स, सेक्सुअलटी, फिज़िकल फिटनेस,यंगनेस, वेल-ग्रूम्नेस, ढेर सारी गर्ल फ्रेंड्स (अगर शादी-शुदा नहीं है तो) और अच्छे बैंक बैलेंस के बिना पुरुष अजीब लगता है जैसे चिड़ियाघर का ओरंगउटान. और यह सब पाने के लिए के लिए वक़्त को पकड़ना पड़ता है. 

महिलायें भी ऐसे ही पुरुषों को ज़्यादा पसंद करतीं हैं जो वक़्त के हिसाब से सक्सेसफुल हो. इसीलिए वक़्त की बड़ी शौर्टेज रहती है. मैं हर काम प्रोडकटिवली ही करना चाहता हूँ. मेरे लिए ब्लॉग लिखना तब प्रोडक्टिव होगा जब मेरी ऊपर लिखी हुई सारी नीड पूरी हो रही होंगीं. 

अब मैं पहले की तरह पढ़ता बहुत हूँ. पढने से क्या होता है कि दिमाग़ तो खुलता ही है और साथ ही में नये नये आईडियाज़ भी आते हैं. जैसे हमारे शरीर को खुराक की ज़रूरत होती है वैसे ही हमारे दिमाग को भी खुराक की ज़रूरत होती है और वो खुराक दिमाग़ को सिर्फ पढने से ही मिलती है,  खासकर रिलीजियस टेक्स्ट्स. हम जब भी रिलीजियस टेक्स्ट पढेंगे चाहे वो किसी भी धर्म के क्यूँ ना हों, सबको पढ़ने के बाद यही लगेगा की यह तो सब एक ही बात कह रहे हैं. मैं बहुत जल्दी ही लखनऊ, कानपुर और गोरखपुर का ऐसा इतिहास बताने जा रहा हूँ जिसे अब तक के लिखा ही नहीं गया है और जिन्होंने लिखा है उन्हें कोई पहचानता ही नहीं तो वो इतिहास को लिखना एक तरह से उन गुमनाम लोगों को सामने लाना होगा जो अब तक पौलिटीक्ली डिबार्ड हैं. सब रिसर्च बेस्ड है. अब से मेरी पोस्ट्स सब हिस्टौरीकल डिसगाईज़ड फैक्ट्स पर कुछ दिन चलेंगीं. बीच बीच में कवितायें और बेमतलब की चीज़ें भी आतीं रहेंगीं. 
(मैं अपने जिम ट्रेनर के साथ, नोट:फ़ोटोज़ का पोस्ट से कोई लेना देना नहीं है)
अच्छा! फेसबुक की सबसे बड़ी ख़ास बात क्या है कि कहीं से भी ओपरेट किया जा सकता है. कार से, मोबाइल से और वाय-फाय से भी. यह हर जगह मिल जाता है. ब्लॉग के साथ ऐसा नहीं है. और फेसबुक को कोई सीरियसली लेता भी नहीं है. फेसबुक में पोस्ट की लाइफ सिर्फ चंद मिनट की ही होतीं हैं. मुझे फेसबुक में ताना मारना बहुत अच्छा लगता है. और मेरे तानों से जब कईओं की सुलगती है तो मेरे मेसेज बॉक्स में गालियाँ लिख कर भेजते हैं फ़िर भी मैं किसी को अन्फ्रेंद नहीं करता. हाँ! मुझे काफी लोग कर देते हैं. पता नहीं क्यूँ लोग मेरे तानों को अपने ऊपर ले लेते हैं जबकि मैं युनिवर्सली ताने देता हूँ. आईये मेरे कुछ बीते दिनों के फेसबुक स्टेटस देखे जाएँ.
  • कई बार हम कुछ ऐसी महिलाओं से मिलते हैं जो हमें दिमागी और शारीरिक रूप में बहुत अच्छी लगतीं हैं.. तो मन में यही ख़याल आता है कि काश! हम इनके वक़्त पर पैदा हुए होते.. या यह हमारे वक़्त पर.. बहुत ज्यादा एज डिफ़रेंस मैटर नहीं करता...दस साल तक चलता है.. शायद यह सही कहा गया है... बट लव हैज़ नो बाउंड्रीज़. (but love has no boundaries) 
  • हिंदी की किताबें कोई www.flipkart.com से खरीदता ही नहीं है.. खरीदेगा भी क्यूँ.. सारे ब्लौगर्ज़ ही तो हैं ... कौन से साहित्यकार हैं.. ब्लागरों में एक ख़ास बात है.. सारे अपने आपको इंटेलेक्चुयल समझते हैं.. और रिकौग्नाइज़ कोई नहीं करता इन्हें.. खुद ही पैसे देते हैं खुद ही छपवाते हैं.. और ख़ुद को ही एक दूसरे से सम्मानित करवाते हैं.. तू मेरी धो मैं तेरी धो दूंगा.. या तू मेरी खुजा मैं तेरी.. और फिर चाहते हैं कोई ज्ञानपीठ दे दे...ज्ञानपीठ का मिनिमम रेट दस लाख रुपये.. जिसे चाहिए वो मुझसे संपर्क करे. 

    (भई! पुरुस्कार ऐसे होने चाहिए जो मान्यता प्राप्त हों.. और हर पुरुस्कार बिकता है ... जिसका मिनिमम रेट तो दस लाख है .. और बाकी जो जितने ज्यादा दे दे.. जो ज्यादा देगा उसे पुरुस्कार मिला जायेगा)

  • पता नहीं क्यूँ अधेड़ सम्पादक, ब्लॉग और फेसबुकिये पुरुष सिर्फ महिलाओं को ही क्यूँ कवितायेँ छापने के लिए कॉन्टेक्ट करते हैं? मुझे हमेशा कोई न कोई महिला बताती रहती है कि फलाने ने कविता भेजने के लिए फोन किया या SMS किया.. या फिर मेल किया.... शायद ही कभी किसी पुरुष ने मुझे बताया हो कि फलाने ने कविता मांगी है छापने के लिए.. कई संपादकों को तो मुझे हड़काना पडा.
  • कितना अजीब लगता है कि जब किसी मॉल में आपकी कोई पुरानी गर्ल फ्रेंड अपने पति के साथ टकरा जाये और अपने पति से इंट्रो कराते हुए कहे: " मीट माय क्लास मेट..फलां ..फलां..ही वॉज़ वैरी बदमाश ड्यूरिंग दैट डेज़.." और उसी मॉल के गेम सेक्शन में बदमाशी करते हुए आपकी वही गर्ल फ्रेंड अपने बच्चों को जोर से आवाज़ देकर बुलाये और कहे "आओ..बेटा देखो तुम्हारे मामा ... मामा से मिल लो.. ... और बच्चे आँखें फाड़े देखते हैं कि यह उनका कौन सा मामा है? आप प्रोफेशनली मुस्कुरा रहे होते हो.. और पुराने दिनों को फ्लैशबैक की तरह उसी वक़्त याद कर रहे होते हो.. 
  • साहित्यिक, ब्लॉग और फेसबुक जगत अब खुश हो जाएँ... आज से गुंडा गर्दी (कंडीशन्स ऐप्लाय) ... ताने देना...तंज मारना.. सब बंद.. अब तो कई सारे साहित्यिक मैगज़ीन्स ने भी रजिस्टर्ड पोस्ट से लैटर लिख कर हाथ जोड़ कर मना किया है.
ऐसे और भी बहुत से हैं. जो ख्याल आता रहता है तो मोबाइल/कंप्यूटर से स्टेटस डाल देता हूँ. 
(मैं अपने गोरखपुर स्थित गौशाला और भैंस शाला में)
(गोरखपुर स्थित मेरा फार्म हाउज़ )
(यह मेरे खेत में एक कौवा जिसकी चोंच टूटी हुई है)
मैंने एक कविता लिखी है. कविताओं का भी अजीब हाल होता है कोई पढ़ता ही नहीं है फ़िर भी हम लिखते हैं. मुझे अब कई सारे कवि जिन्हें हमने स्कूल में में पढ़ा आज मुझे वो नालायक लगते हैं. सब सरकारों के तलवे चाट कर अपनी अपनी कवितायें स्कूलों में लगवा दिए और हमें उन लोगों को ज़बरदस्ती पढना पढ़ा. बचपना भी बड़ा अजीब होता है ... हम विरोध करने लायक नहीं होते और अगर विरोध करते तो बच्चा कह कर चुप करा दिए जाते.. और जब बड़े हो जाते तो सिस्टम के आगे मजबूर रहते. आईये कविता देखते हैं..

हमारी मजबूरी 
क्या आपको ऐसा नहीं लगता
कि हमारी स्वतंत्रता 
उस 
मासिक धर्म की तरह है
जिसमें 
हम बूँद बूँद खून लिए 
झरते जाते हैं 
मगर 
ख़ुद के आगे भी 
दाग़ भरे कपडे ना उठा पाना
हमारी मजबूरी है. 
--------------------------------
अब मेरा फेवरिट गाना :

रविवार, 20 मई 2012

और किसी को कुछ कहना या लिखना है तो लिख ले भाई..: महफूज़


काफी दिनों (दस दिनों के बाद) के बाद नेट पर आना हुआ है. वजह बहुत सिंपल सी थी कि मैं अपने अकैडमिक कौन्फेरेंस के लिए बाहर था और नेट के एक्सेस में नहीं था और इंटरनेश्नल रोमिंग की सुविधा मेरे मोबाइल में नहीं थी. लौट कर आया तो दिल्ली से सीधे अपने गृह नगर गोरखपुर चला गया वहां भी नेट का एक्सेस नहीं था कि गोरखपुर में फ़ोन आया कि भई मेरे खिलाफ कोई मेल सर्कुलेट कर रहा है. मैंने कहा कि भई करने दो क्या फर्क पड़ता है? तो मुझे बताया गया कि मेरी कविताओं के पब्लिकेशन पर कोई रिसर्च कर रहा है तो कोई मेरे फेसबुक प्रोफाइल  पर पी.एच.डी. कर रहा है. 

आज लौटा हूँ तो शिवम् ने मुझे वो मेल फॉरवर्ड की और किसी ब्लॉग का लिंक भी दिया. हालांकि मुझे कुछ  कहना तो नहीं है. लेकिन आज मैं ख़ुद अपने बारे में और भी ब्लॉग जगत को बताना चाहूँगा जो ब्लॉग जगत में खुशदीप भैया, शिवम्, ललित शर्मा, अनूप शुक्ला (फुरसतिया), शिखा (यह मेरे बारे सब कुछ जानतीं हैं), अंजू चौधरी, रश्मि रविजा, रेखा श्रीवास्तव , इंदु पूरी, अजित गुप्ता और पवन कुमार (आई.ऐ.एस) जानते हैं क्यूंकि यह सब मेरे घर आ चुके हैं. लेकिन आज जब वो मेल सर्कुलेट हो रही है तो मैं यह बता दूं भई कि मेरे बारे में जो भी जितना खोदेगा उतना ज़्यादा  निकलेगा. वो मेल कहती है कि मैंने अपने फेसबुक प्रोफाइल में MHRL नाम की संस्था का ख़ुद को चेयरमैन और सी.इ.ओ. बताया है. 

हाँ! भई बताया है.. लेकिन जिस MHRL का लिंक उस पर बन कर आ रहा था मैं उसका चेयरमैन नहीं हूँ और ना कभी था और ना कभी होऊंगा. बताइए किस फ्रस्ट्रेशन में उस आदमी ने क्या क्या खोज निकाला. अरे भई... मैं ख़ुद मल्टी-मिलियनेयर और इंडस्ट्रीयलिस्ट हूँ. मेरी अपनी मेडिकल कंपनी Medica Herbals and Research Laboratory (MHRL) है और मैं अपनी कंपनी का चेयरमैन, डाइरेक्टर, और सी.इ.ओ हूँ...(website link attached herewith the line) मेरी यह कंपनी पांच साल पुरानी है और इसकी वेबसाइट भी पांच साल पुरानी है.कभी बताया नहीं तो इतना कुछ लिख दिया...पता नहीं लोग क्यूँ सबको अपने जैसा ही गरीब गुरबा ही समझते हैं? मेरे और भी बहुत सारे बिज़नेस हैं. कानपुर और गोरखपुर में हमारे अब स्कूल चलते हैं (अभी हाल ही में शुरू किये हैं, इसका भी आईडिया एक बार अनूप शुक्ला जी ने ही दिया था). 

हमारी फैक्टरी की एक यूनिट कानपुर के दादानगर में भी लग रही है. अगर मेरे फेसबुक प्रोफाइल में MHRL का लिंक अगर कोई Mental Health Resource League for Mchenry County (MHRL) का  आ गया तो मैं क्या करूँ? मैंने कभी उस ओर ध्यान भी नहीं  दिया..ना ही कभी ध्यान गया. वो तो उन महाशय ने ध्यान दिलाया।..और वो महाशय चल पड़े मेरे बारे में लिखने बिना जांचे परखे, पर  एक चीज़ तो है कि यह पता चल गया कि चार अक्षर क्या क्या कर सकते हैं... और अक्षर क्या कमाल दिखा सकते हैं.? मेरी अपनी दवा कम्पनी है, मेरे कई सारे ठेके चलते हैं और इन सबके साथ मै एकेडेमीशियन भी हूँ. भई मैं यह बता दूं कि मुझे हमेशा टॉप पर रहने की आदत रही है.. मुझे सिविल सर्विस में आई.ऐ.एस. नहीं मिला था तो मैंने आई. ऐ.ऐ.एस (आई.ऐ.एस. अलाइड) की नौकरी छोड़ दी. और कोई नौकरी  मैं कर नहीं सकता था तो लेक्चरार, अब असोसिएट प्रोफ़ेसर (यही एक ऐसी नौकरी है जहाँ सब- ऑर्डिनेशन नहीं है) बन गया. इन सबके अलावा मैं एक रिफाइंड गुंडा भी हूँ. शारीरिक रूप से बहुत स्ट्रोंग हूँ तो दो-चार आदमियों को अकेले संभाल लेता हूँ. पहलवान भी हूँ, एजुकेशनिस्ट भी हूँ, बिजनेसमैन भी हूँ, राइटर भी हूँ और हैंडसम भी हूँ... और राजनीतिग्य भी हूँ. इसके बाद भी जितना खोदोगे उतना ज़्यादा निकलेगा.  अब भाई मुझे ऊपर वाले ने बहुत सुंदर बनाया है अच्छी शक्ल सूरत के साथ, अच्छा शरीर, और अच्छा पैसे वाला भी बनाया है तो एक अलग ऐटीट्युड तो रहेगा  ही रहेगा. और उन सबसे भी ऊपर बात यह है कि मैं रियल मर्द हूँ.. मुझे जिसे भी गाली देनी होती है मैं मुँह पर देता हूँ.. मुझे जिसे भी मारना होता है घर के अंदर घुस कर मारता हूँ (मारने से पहले सम्बंधित थाने में ख़बर कर दी जाती है की एक घंटे बाद आना). जो नामर्द होता है वो छिप कर और पीठ पीछे वार करता है. अरे भाई आमने सामने की लड़ाई लड़ो ...यह क्या बिना जाने समझे  किसी को भी चल पड़े लिखने.. मेरे बारे में जितना  भी लिखोगे उतना ही मुँह की खाओगे.. अभी यह जितना भी बताया हूँ ...ख़राब   तो लग रहा है मुझे यह सब बताने में क्यूंकि आज तक मैंने अपना  यह प्रोफाइल कभी बताया ही नहीं. वो बताइए मुझसे सावधान रहने की कोशिश करवा रहा है और ख़ुद गायब है. अरे मुझसे सावधान रहने की ज़रूरत इन्ही जैसे लोगों को है जिस दिन पता चल गया मुझे तो छोडूंगा नहीं. मुझे उन लोगों से लड़ने में ज़्यादा मज़ा आता है जो क्षत्रिय और मर्दों की तरह लड़ते हैं. 

भई! मैं तो बचपन से लेकर आज तक पोपुलर रहा हूँ और आने वाले दिनों में रहूँगा. जो भी मेरे बारे में जितना खोदेगा उतना ज़्यादा पायेगा. रही बात कोई मेरे कविताओं के बारे बात करने का ...तो वो मैं जर्मनी से लौट कर आने के बाद बताऊंगा. और भई मैं सरकारी मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रख्यात अंग्रेज़ी का राइटर हूँ.. हिंदी का नहीं हूँ.. हिंदी में तो यही सब बेवकूफियां करने आया हूँ..तो भाई ग़रीब गुरबों.. मुझसे चंदा लेने आओ.. और जितना खोद सकते हो उतना खोदो.. तुम मुझे जितना खोदोगे ... उतना नया महफूज़ सामने आएगा ...अच्छा है तुम्हारे लिखने  से मैं ही पोपुलर हो रहा हूँ.. और मुझे अपने बारे में और बताने के लिए मौका मिल रहा है.  वैसे तो मैं जानता हूँ कि यह कौन लोग हैं मेल सर्कुलेट करने वाले लेकिन बस मैं अब फ़ालतू लोगों के मुँह नहीं लगता. आफ्टर ऑल आई हैव सम लेवल..   खुशदीप भैया ने एक बार एक जोक लिखा था कि एक पूछता है दूसरे से कि मेरे पास ब्लॉग है, ऑरकुट है, फेसबुक है और ट्विट्टर है ...हईं! तुम्हारे पास क्या है? तो दूसरा जवाब देता है कि मेरे पास काम धंधा है. तो भाई लोगों मेरे पास भी काम धंधा है.. मैं यह सब ब्लॉग्गिंग जैसी फ़ालतू एक्टिविटी खाली टाइम में ही करता हूँ. कितना फ़ालतू टाइम है लोगों के पास .. बाप रे बाप.. 

मैं उस मेल करने वाले का शुक्र-गुज़ार हूँ कि मेरे पीठ पीछे मुझे और पोपुलर कर दिया.. और मुझे घर बैठे इतनी पोपुलैरिटी दिलवा दी कि बहुत सारे लोगों के मेल और फ़ोन आने लग गए. अभी यह जितना भी मैंने ख़ुद के बारे में बताया है वो भी कम है. अभी मैं फ़िर बाहर जा रहा हूँ.... अब देखता हूँ कि लौट कर और कितनी पौपुलैरिटी मिली है.. आज बिना मतलब में खुद के बारे में जो छिपाया हुआ था।...उसी के बारे में इतना मूंह खुलवा दिया।

अब मेरा फेवरिट गाना : 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...